(देखहुँ=इसलिये जिसमें देखूं)
(३) पुनि सो रहैं, रहै नहिं कोई।
(दूसरे 'रहै' के पहले 'जब' चाहिए)
(४) काँच रहा तुम कंचन कीन्हा।
तब भा रतन जोति तुम दीन्हा।
('जोति' के पहले 'जब' चाहिए)
संबंधवाचक सर्वनामों के लोप में तो जायसी अँगरेज कवि ब्राउनिंग से भी बढ़े हैं। एक नमूना काफी है—
कह सो दीप पतँग कै मारा।
इस चरण में 'पतँग' के पहले 'जेई' (=जिसने) पद लुप्त है जिससे अभिप्रेत अर्थ तक पहुँचने में व्यर्थ देर होती है। पहले देखने में यही अर्थ भासित होता है कि 'पतँग का मारा हुआ दीपक कहाँ है?' न्यूनपदत्व के अतिरिक्त 'समाप्तपुनरात्तत्व' भी प्रायः मिलता है, जैसे—'हिये छाहँ उपना और सोऊ।' यदि उपना शब्द आदि में कर दें तो यह दोष दूर हो जाय।
हिंदी के अधिकांश कवियों पर शब्दों का अंगभंग करने का दोष लगाया जा सकता है। पर जायसी के चरण के अंत में पड़नेवाले शब्द को दीर्घांत करने में जितना होता है उतने से अधिक किसी शब्द का रूप नहीं बिगड़ा है। रूपांतर कहीं एकाध जगह ऐसा उदाहरण मिल जाय तो मिल जाय जैसे कि ये हैं—
(क) दंडा करन बीझ वन जाहाँ? (=जहाँ)
(ख) करन पास लीन्हेउ कै इंदु।
विप्र रूप धर झिलमिल इंदू॥
(इंद्र के स्थान पर 'इंदू' करना ठीक नहीं हुआ है।)
जायसी के दो शब्दों का व्यवहार पाठकों को कुछ विलक्षण प्रतीत होगा। उन्होंने 'निरास' शब्द का प्रयोग 'जो किसी की आशा का न हो, जो किसी का आश्रित न हो इस अर्थ में किया है, जैसे—
ओहि न मोरि किछु आसा, हौं ओहि आस करेउँ।
तेहि निरास प्रीतम कह, जिउ न देउँ, का देउँ?
व्युत्पत्ति के अनुसार तो इस अर्थ में कोई बाधा नहीं। पर प्रवृत्ति से भिन्न होने के कारण 'अप्रयुक्तत्व' दोष अवश्य है। दूसरा शब्द है 'बिसवास' जिसे जायसी, 'विश्वासघात' के अर्थ में लाए हैं, जैसे—
(क) राजै बीरा दीन्हा, नहिं जाना बिसबास।
(ख) आदम हौवा कहँ सृजा, लेइ घाला कैलास।
पुनि तहवाँ से काढ़ा, नारद के बिसवास॥
इसी प्रकार 'बिसवासी' शब्द भी विश्वासघाती के अर्थ में कई जगह लाया गया है—
अरे मलिछ बिसवासी देवा। कित मैं आइ किन्हि तोरि सेवा॥