है। पद को न्यूनता से अभिप्राय जरा देर से खुलता है। जब जल घटने लगता है तब ताल की गोली मिट्टी सूखकर फट जाती है। कवि का अभिप्राय है कि जिस प्रकार जल घटने से ताल फट जाता है उसी प्रकार यदि यौवन के ह्रास से प्रिय से जी न फटे, प्रीति वैसी ही बनी रहे तो कोई हर्ज नहीं। कुछ और उदाहरण लीजिए—
(क) हाथ लिए आपन जिउ होई।
(ख) आवा पवन बिछोह कर, ताप परा बेकरार।
तरिवर तजा जो चूरि कै लागै केहि के डार?॥
दूसरे उदाहरण में 'किसी की डाल लगना' यह मुहाविरा अन्योक्ति में खूब ही बैठा है। लोकोक्तियों के भी कुछ नमूने देखिए—
(क) सूधी अँगुरि न निकसै घीऊ।
(ख) दरब रहै भुइँ, दिपै लिलारा।
(ग) तुरय रोग हरि माथे जाए।
(घ) धरती परा सरग को चाटा।
जायसी की काव्यरचना स्वच्छ होने पर भी तुलसी के समान सुव्यवस्थित नहीं। उसमें जो वाक्यदोष मुख्यतः दिखाई पड़ता है वह 'न्यूपदत्व' है। विभक्तियों का लोप, संबंधवाचक सर्वनामों का लोप, अव्ययों का लोप जायसी में बहुत मिलता है। विभक्ति या कारकचिह्न का अव्याहार तुलसी की रचनाओं में कहीं कहीं करना पड़ता है, पर उन्होंने लोप या तो ऐसा किया है जैसा बोलचाल में भी प्रायः होता है—जैसे सप्तमी के चिह्न का—प्रथवा लुप्त चिह्न का पता प्रसंग से बहुत जल्द लग जाता है। पर जायसी ने मनमाना लोप किया है—विभक्तियों का ही नहीं, सर्वनामों, अव्ययों का भी। कहीं कहीं तो इस लोप के कारण 'प्रसादगुण, बिलकुल जाता रहा है और अर्थ का पता लगाना दुष्कर हो गया है, जैसे—
सरजै लीन्ह साँग पर याऊ। परा खड़ग जनु परा घिहाऊ॥
इसमें दूसरे चरण का अर्थ शब्दों से नही निकलता है कि 'खड्ग ऐसा पड़ा मानों निहाई पड़ी।' पर कवि का तात्पर्य यह है कि 'खड्ग निहाई पर पड़ा।' देखिए इस 'पर' के लोप से अर्थ में कितनी गड़बड़ी पड़ गई।' विभक्ति और कारक-चिह्न के बेढंगे लोप के और नमूने देखिए—
(क) जंघ छपा कदली होइ बारी।
(जंघ=जंघ से)
(ख) करन पास लोन्हेउ कै छंदू?
(पास=पास से)
अव्ययों का लोप भी प्रायः मिलता है—और ऐसा जिससे अर्थ समझने में भी कभी कभी कुछ देर लगती है, जैसे—
(१) तब तहँ चढ़े फिरै नो भँवरी। (फिरै=जब फिरै)
(२) दरपन साहि भीति तहँ लावा।
देखहुँ जबहिं झरोखे आवा॥