पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१७५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १५५ )


हिंदी कवि कभी कभी श्रवणसुखदता की दृष्टि से लकार के स्थान पर रकार कर दिया करते हैं, जैसे 'दल' के स्थान पर 'दर', बल' के स्थान पर 'बर'। जायसी ने ऐसा बहुत किया है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं—

(क) होत आब दर जगत असूझ। (=दल)

(ब) सत्त के बर जो नहिं हिय फटा। (=बल)

(ग) कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा। (=निर्मल)

(घ) नाम मुहम्मद पूनिउँ करा। (=कला)

यहाँ तक तो इस बात का विचार था कि जायसी की भाषा कौन सी है और उसका व्याकरण क्या है। अब थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि जायसी की भाषा कैसी है।

जायसी ने अपनी भाषा अधिकांश पूरवी या ठेठ अवधी रखते हुए भी जो बीच बीच में नए पुराने, पूरबी पश्चिमी कई प्रकार के रूपों को स्थान दिया है, इससे भाषा कुछ अव्यवस्थित सी लगती है। पर उन रूपों का विवेचन कर लेने पर यह व्यवस्था नहीं रह जाती। केशव के अनुयायी भूषण, देव आदि फुटकरिए कवियों की भाषा से इनकी भाषा कहीं स्वच्छ और व्यवस्थित है। चरणों को पूर्ति के लिये अर्थसंबंध और व्याकरणसंबंध रहित शब्दों को भरती कहीं नहीं है। कहीं कुछ शब्दों के रूप व्याकरणविरुद्ध मिल जायँ तो मिल जायँ पर वाक्य का वाक्य शिथिल और बेढंगा कहीं नहीं मिलेगा। शब्दों के रूप व्याकरणविरुद्ध अवश्य कहीं कहीं मिल जाते हैं, जैसे—

दसन देखि कै बीज लजाना।

'लजाना' के स्थान पर 'लजानी' चाहिए। पूरबी अवधी में भी 'लजानि' रूप होगा जिसे चंद के विचार से यदि दीर्घांत करेंगे तो 'लजानी' होगा। कहीं कहीं तो जायसी के वाक्य बहुत ही चलते हुए हैं; जैसे देवपाल की दूती पद्मिनी के मायके की स्त्नी बनकर उससे कहती है—

सुनि तुम कहँ चितउर महँ कहिउँ कि भेटौं जाइ।

बोलचाल में ठीक इसी तरह कहा जाता है—'तुमको चित्तौर में सुनकर मैंने कहा कि जरा चलकर भेंट कर लूँ।' कहावत और मुहाविरे भी कहीं कहीं मिलते हैं पर वे यों ही भाषा के स्वाभाविक प्रवाह में आए हुए हैं, काव्यरचना के कोई आवश्यक अंग समझकर नहीं बाँधे गए हैं। मुहाविरे का अधिक प्राधान्य देने से रूढ़ पदसमूहों में भाषा बँधी सी रहती है, उसकी शक्तियों का नवीन विकास नहीं होने पाता। कवि अपने विचारों को ढालने के लिये नए नए साँचे न तैयार करके बने बनाए साँचों में ढलनेवाले विचारों को ही बाहर करता है। खैर, इस प्रसंग में यहाँ कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। जायसी के दो एक उदाहरण देकर आगे चलते हैं—

(क) जोबर नीर घटे का घटा। सत्त के बर जौ नहिं हिय फटा॥

यहाँ कवि ने 'हृदय फटना' या 'जी फटना' इस मुहावरे का बड़े कौशल से प्रयोग किया है। कवि ने हृदय को सरोवर माना है, यद्यपि 'सरोवर' पद आ नहीं सका