'पारना' क्रिया के रूप अब बंगाल ही में सुनाई पड़ते हैं पर जायसी और तुलसी के जमाने तक शायद वे अवध की बोलचाल में भी रहे हों; क्योंकि इनके पहले के कबीर साहब की वाणी में भी वे पाए जाते हैं। जो कुछ हो, जायसी और तुलसी दोनों ने इस 'पारना' (=सकना) क्रिया का खूब व्यवहार किया है, जैसे—
(क) परी नाथ कोइ छुवे न पारा।—जायसी
(ख) तुमहि अछत को बरनै पारा।—तुलसी
यही दशा 'आछना' क्रिया की भी है। यह अस् धातु से निकली जान पड़ती है जिसके रूप पाली में 'अच्छति', 'अच्छंति' आदि होते हैं। अब हिंदी में तो उसका वर्तमान कृदंतरूप 'अछत' या 'आछत' ही बोलचाल में है, पर बँगला में इसके और रूप प्रचलित हैं। कबीर साहब और जायसी दोनों में इसके कुछ रूप पाए जाते हैं—
(क) कह कबीर किछु अछितो न जहिया
(अछिलो=था; मिलाओ बँगला 'छिलो')
(ख) कँवल न आछै आपनि बारी।
(आछै=है; बँगला 'आछे')
(ग) का निचिंत रे मानुष आपन चीते आछु।
(आछु=रह)
इसी प्रकार 'आदि' शब्द का प्रयोग 'बिल्कुल' या 'निपट' के अर्थ में अब केवल बंगभाषा में ही सुनाई पड़ता है, (जैसे, नदी में बिल्कुल पानी नहीं है=आदौ जल नाय); पर जायसी ने 'पद्मावत' में किया है। 'बादल' अपनी माता से कहता है—
मातु न जानसि बालक आँदी। हौं बादला सिंह रनबादी॥
अर्थात् माता मुझे बिल्कुल बालक न समझ।
सत्तार्थक 'होना' क्रिया के रूपों के आदि में 'अ' अक्षर पहले रहता था वह के कुछ हिस्सों में—जायस और अमेठी के आसपास—वर्तमान काल में बना हुआ है। वहाँ 'है' के स्थान में 'अहै' बोलते हैं। जायसी ने भूतकालिक रूप 'अह' (=था) का भी व्यवहार किया है। संभव है उस समय बोला जाता हो। उदाहरण—
(क) भाँट अहँ ईसर कै कला।
(ख) परबत एक अहा तहँ डूंगा।
(ग) जब लग गुरु हौं अहा महान चीन्हा।
तुलसीदास जी में केवल वर्तमान का रूप 'अहै' मिलता है। यह सत्तार्थक क्रिया 'भू' धातु से न निकलकर अस् धातु से निकली जान पड़ती है। भू धातु से निकले हुए पुराने प्राकृत कृदंत 'हुत' (=था) का प्रयोग जायसी की भाषा में हमें प्रायः मिलता है—
(क) हुत पहले औ अब है सोई।
(ख) गगन हुता नहिं महि हुती, हुते चंद नहि सूर।