उच्चारण में 'हि' के 'ह' के घिस जाने से केवल स्वर रह गया जिससे 'राजहि' का 'राजइ' हुआ और 'राजइ' से 'राजै'। इसी तरह 'केहि', 'गेहि', 'जेहि' भी 'केइ' 'जइ' 'तेइ' बोले जाने लगे। इसी से हमने पाठ में ये पिछले रूप ही रखे हैं। जायसी के समय इस 'ह' का लोप हो चला था इसका प्रमाण दो चार जगह हकारलुप्त कारक-चिह्नों का प्रयोग है, जैसे—
जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ।
यह 'काँ' आजकल की अवधी बोलचाल में कर्म और संप्रदान का चिह्न है और 'कहँ' का बिगड़ा हुआ (हकारलुप्त) रूप है। 'कहँ' पुराना रूप है। बोलचाल की अवधी में 'काँ' और 'के' दो रूप चलते हैं। यह 'के' भी अपभ्रंश की पुरानी कर्मविभक्ति 'केहि' का घिसा हुआ रूप है।
'हि' और 'ह' दोनों ही एक ही हैं। 'ह' का व्यवहार पृथ्वीराजरासो में बराबर मिलता है। 'तुम्हारा' में यह 'ह' अबतक लिपटा चला आ रहा है। 'ह' के साथ संयुक्त सर्वनामों का व्यवहार जायसी ने बहुत किया है, जैसे—हम्ह=हमको, तुम्ह=तुमको। इसी प्रकार और कारकों में भी यह 'ह' सर्वनाम में संयुक्त मिलता है। कुछ उदाहरण देखिए—
(क) गुरु भएउँ आप, कीन्ह तुम्ह चेला। (=तुमको)
(ख) आज आगि हम्ह जूड़। (=हमको, हमारे लिये)
(ग) पदुम गंध तिन्ह अंग साहीं। (=उनके)
(घ) जिन्ह एहि हाट न लीन्ह बेसाहा। (=जिन्होंने)
(ङ) मैं तुम्ह राज बहुत सुख देखा। (=तुम्हारे)
(च) एहि बन बसत गई हम्ह आऊ। (=हमारी)
(छ) परसन आइ भए तुम्ह राती। (=तुम्हारे ऊपर)
इस पुरानी विभक्ति के अतिरिक्त जायसी और तुलसी ने कुछ पुराने शब्दों का भी व्यवहार किया है। इनमें से कई एक ऐसे हैं जो अब प्रसिद्ध नहीं हैं। उदाहरण के लिये 'चाहि' और 'बाज' इन दो शब्दों को लीजिए। चाहि का अर्थ है अपेक्षाकृत अधिक बढ़कर—
(क) मेघहु चाहि अधिक वै कारे।
(ख) एक सो एक चाहि रुपमनी।
(ग) कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसुमहु चाहि।—तुलसी
यह 'चाहि' शायद संस्कृत 'चापि' से निकला हो। 'बंगला में यह 'चेये' इस रूप में बोला जाता है। अब दूसरा शब्द 'बाज' लीजिए। जिसके अर्थ होते हैं बिना, बगैर अतिरिक्त, छोड़कर
(क) गगन अंतरिख राखा, बाज खंभ बिनु टेक।
(ख) को उठाइ बैठारे बाज पियारे जीउ।
(ग) दीन दुख दारिद दरै को कृपावारिधि बाज?—तुलसी
यह 'बाज' संस्कृत 'वर्ज्य' का अपभ्रंश है।