ऊपर कह आए हैं कि कभी कभी वर्तमान में संक्षेप के लिये धातु का रूप रख दिया जाता है। अत: 'बोला' और 'हँसा' वास्तव में 'बोल' और 'हँस' हैं जो छंद की दृष्टि से दीर्घांत कर दिए गए हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सक्षिप् रूपों का व्यवहार दोनों लिंगों में समान रूप से हो सकता है। इसी प्रकार संभाव्त भविष्यत् का रूप भी कभी कभी दीर्घांत होकर चरण के अंत में आ जाता है, जैसेय
(क) को हींछा पूरै, दुख खोवा?
(खोवा=खोव या खोउ अर्थात् खोवे)
(ख) दरपन साहि भीति तहँ लावा। देखहुँ जबहि झरोखे आवा॥
(आवा=आव या आउ अर्थात् आवे)
जायसी और तुलसी दोनों कवियों ने कहीं कहीं बहुत पुराने शब्दों और रूपों का व्यवहार किया है जिनसे परिचित हो जाना बहुत ही आवश्यक है। दिनिअर, ससहर, अहुट्ठ, भुवाल, पइट्ठ, विसहर, सरह, पुहुमी (दिनकर, शशधर, अध्युष्ठ, भूपाल, प्रविष्ट, विषधर, शलभ, पृथ्वी) आदि प्राकृत संज्ञाओं के अतिरिक्त और प्रकार के पुराने शब्द और रूप भी मिलते हैं। उनमें से मुख्य मुख्य का उल्लेख नीचे किया जाता है।
किसी समय संबंध को 'हि' विभक्ति से सब कारकों का काम लिया जाता था, पीछे वह कर्म और संप्रदान में नियत सी हो गई। इस 'हि' या 'ह' विभक्ति का सब कारकों में प्रयोग जायसी और तुलसी दोनों की रचनाओं में देखा जाता है। जायसी के उदाहरण लीजिए—
(१) जेंहि जिउ दिन्ह कीन्ह संसारू। (कर्ता)
(२) चाँटहि कर हस्ति सरि जोगू।(कर्म)
(३) बजहि तिनकहि मारि उड़ाई। (करण)
(४) देस देस के बर मोहि आवहि। (संप्रदान)
(५) राजा गरजहि बोल नाहीं। (अपादान)
(६) सौंजहि तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख | (संबंध) |
चतुर वेद हौ पंडित, हीरामन मोहि नाँव |
(७) तेंहि चढ़ि हेर, कोइ नहिं साथा। (अधिकरण)
कौन पानि जेंहि पवन न मिला?
कर्ता कारक में 'हि' की विभक्ति गोस्वामी तुलसी दास जी ने तो केवल सकर्मक भूतकालिक क्रिया के सर्वनाम कर्ता में ही लगाई है। (जैसे, तेइ सब लोक लोकपति जीते) पर जायसी में आकारांत संज्ञा कर्ता में भी यह चिह्न प्रायः मिलता है, जैसे—
(क) राजै कहा 'सत्य कहु, सूआ'।
(राजै=राजहि=राजा ने)
(ख) राजै लीन्ह ऊबि के साँसा।
(ग) सुए तहाँ दिन दस कल काटी।
(सूऐ=सुअहि=सुए ने)