हुए 'होना' क्रिया के रूप है। प्राकृत की 'हिंदी' विभक्ति भी वास्तव में 'भू' धातु, से निकली है और 'भूत्वा' शब्द का अपभ्रंश है। जायसी ने 'हुँत' रूप में ही इस विभक्ति का बराबर प्रयोग किया है, जैसे—
(क) तेहि बंदि हंत छुटै जो पावा। (=बंदि से)
(ख) जल हुँतें निकसि भुवै नहि काछू। (=जल से)
(ग) जब हुँत कहिगा पंखि सँदेसी। (=जब से)
(घ) बब हुँत तुम बिनु रहै न जीऊ। (=तब से)
'कारण' और 'द्वारा' के अर्थ में भी 'हुँत' का प्रयोग होता है, जैसे—
(क) तुम हुँत मंडप गइउँ परदेसी। (=तुम्हारे लिये, तुम्हारे कारण)
(ख) उन्ह हुँत देखै पाएउँ दरस गोसाईं केर (=उनके द्वारा)
जायसी ने ठेठ पूरबी अवधी के शब्दों का जितना अधिक व्यवहार किया है उतना अधिक तुलसीदास जी ने नहीं। नीचे कुछ शब्दों के उदाहरण दिए जाते हैं—
(१) राँध जो मंत्री बोले सोई।
तेहि डर राँध न बैठों, मकु साँवरि होइ जाउँ।
(राँध=निकट, पास)
इस शब्द का व्यवहार अब केवल यौगिक रूप में रह गया है, जैसे—राँध पड़ोसी। और ठेठ शब्द लीजिए, जो साहित्यज्ञों को ग्राम्य लगेंगे—
(२) अहक मोरि पुरुषारथ देखेहु। (अहक=लालसा)
(३) नौजि होइ घर पुरुष बिहूना। (नौजि=ईश्वर न करे। अरबी-नऊज=बिल्ला)
(४) जहिया लंक दही श्री रामा। (जहिया=जब)
(५) जौ देखा तीबइ है साँसा। (तीबइ=स्त्री)
(६) जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ। (मौंका=मोकहुँ=मुझको)
(७) जाना नहिं कि होब अस भहूँ। (भहूँ=मैं भी)
(८) हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै। (अधिकौ=और भी अधिक)
ऊपर जो पूरबी अवधी के रूप दिखाए गए उनसे यह न समझना चाहिए कि जायसी ने सर्वत्र पूरबी अवधी ही के व्याकरण का अनुसरण किया है। कवि ने तुलसीदास जी के समान सकर्मक भूतकालिक क्रिया के लिंग वचन अधिकतर पच्छिमी हिंदी के ढंग पर कर्म के अनुसार ही रखे हैं, जैसे—
बसिठन्ह आइ कही अस बाता।
इसी प्रकार भूतकालिक क्रिया का पुरुष-भेद-शून्य पश्चिमी रूप भी प्रायः मिलता है, जैसे—
तुम तौ खेंलि मँदिर महँ आई।
इसके अतिरिक्त पश्चिमी साधारण क्रिया (इनफिनिटिव) के 'न' वर्णांत रूप का प्रयोग भी कहीं कहीं देखा जाता है, जैसे—
कित आपन पुनि अपने हाथा। कित मिल के खेलव एक साथा॥