अधिकरण—पुराना रूप 'महँ', आधुनिक 'माँ', 'पर'
हिंदी के संबंधकारक चिह्न में लिंगभेद होता है। खड़ी बोली में पुं° संबंधकारक चिह्न है 'का' और स्त्री° 'की'। ब्रजभाषा में भी यह भेद है। अवधी की बोलचाल में तो यह भेद लक्षित नहीं होता पर साहित्य की भाषा में भेद दिखाई पड़ता है। जायसी और तुलसी दोनों पुं° संबंधकारक चिह्न 'कर' रखते हैं और स्त्री° संबंधकारक चिह्न 'कै' जैसे—
(१) राम तें अधिक राम कर दाता।
जेहि पर कृपा राम कै होई॥—तुलसी
(२) सुनि तेहि सुन राजा कर नाऊँ।
पलुही नागमती कै बारी॥—जायसी
इससे यह स्पष्ट ही है कि प्रबंधी में स्त्री° संबंधकारक चिह्न 'की' कभी नहीं होता, 'कै' ही होता है।
बोलचाल में उच्चारण संक्षिप्त करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है। इसी प्रवृत्ति के अनुसार 'कर' के स्थान पर केवल 'क' बोल देते हैं। तुलसी और जायसी दोनों में यह संक्षिप्त रूप मिलता है, जैसे—
(क) धनपति उहै जेहि क संसारू।—जायसी
(ख) पितु आयसु सब धरम क टीका।—तुलसी
ठेठ अवधी का एक प्रकार का प्रयोग भाषा के इतिहास की दृष्टि से ध्यान देने योग्य है। वर्तमान रूप में आने के पहले हमारी भाषा के कारकों की कुछ दिनों तक बड़ी अव्यवस्थित दशा रही। कुछ तो सबंधकारक की 'ही' विभक्ति (मागधी 'ह', अप° हो) से काम चलता रहा जिसका प्रयोग सब कारकों में होता था और कुछ स्वतंत्र शब्दों द्वारा। पुराने गद्य के नमूने अभी टीकाओं आदि में मिल सकते हैं जिसमें 'पृथ्वी पर' के स्थान में 'पृथ्वी विषय' लिखा मिलेगा, जैसे—'नारद जी पृथ्वी विषय आाए।' संबंधकारक के चिह्न के रूप में इस 'कृत' शब्द का प्रयोग गोस्वामी तुलसीदास जी ने कई जगह किया है, जिससे वर्तमान 'कर' और 'का' निकले हैं। यह तो हुई पुरानी बात। पूरबी अवधी में अब तक कारक के (और करण के भी) चिह्न के रूप में 'भै' या 'भए' शब्द का प्रयोग है, जैसे—'मीत भै' (= मित्र से), 'तर भै' (=नीचे से), 'ऊपर भै' (=ऊपर से)। जायसी और तुलसी ने ऐसा प्रयोग किया है—
(१) मीत भै माँगा बेगि विमानू। (=मित्र से तुरंत विमान माँगा)।
(२) ऊपर भए सो पातुर नाचहि (=ऊपर से)
तर भए तुरुक कमानहि खाँचहि (= नीचे से)
(३) भरत आइ आगें भए लीन्हें (=आगे से)—तुलसी
इसी तरह जायसी ने 'होइ' शब्द का प्रयोग भी पंचमी विभक्ति के स्थान पर किया है, जैसे—
बैठि तहाँ होइ लंका ताका (=वहाँ से)
इसमें तो कुछ कहना ही नहीं है कि यह 'भए' या 'होइ', 'भू' धातु से निकले