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जायसी की भाषा

जायसी की भाषा ठेठ अवधी है और पूरबी हिंदी के अंतर्गत है इससे उसमें ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों से कई बातों में विभिन्नता है। जायसी को अच्छी तरह समझने के लिये अवधी की मुख्य मुख्य विशेषताओं को जान लेना आवश्यक है। अतः संक्षेप में कुछ बातों का उल्लेख यहाँ किया जाता है।

शुद्ध अवधी की बोलचाल में क्रिया का रूप सदा कर्ता के पुरुष, लिंग और वचन के अनुसार होता है; कर्म के अनुसार सकर्मक भूतकालिक क्रिया में भी नहीं होता। कारण यह है कि पूरबी बोलियाँ भूतकाल में कृदंत रूप नहीं लेती हैं, तिङंत रूप ही रखती हैं। मूल चाहे इन रूपों का कृदंत ही हो, जैसा कि कहीं कहीं लिंगभेद से प्रकट होता है, पर व्यवहार तिङंत ही सा होता है। नीचे के उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जायगी—

(१) उत्तम पुरुष

(क) देखेउँ तोरे मँदिर घमोई। (पु॰ एकवचन) मैं

(ख) ढूढ़िउँ बालनाथ कर टीला। (स्त्री॰ एकवचन) मैं

(ग) औं हम देखा, सखी सरेखा। (पु॰ स्त्री बहुवचन) हम

(२) मध्यम पुरुष

(क) चाहेसि परा नरक के कूंआँ पु॰ स्त्री॰ बहुवचन

तू या तैं

धातु कमाय सिखें तैं जोगी

(ख) रूप चीन्ह कै जोग बिसेखेउ (पु॰ बहुवचन) तुम

(ग) पूजि मनाइउ बहुतै भाँती। (स्त्री॰ बहुवचन) तुम

(३) प्रथम पुरुष

(क) रोइ हँकारेसि माझी सूआ। (पु॰ स्त्री॰ एकवचन) वह

(ख) कहेन्हि 'न रोव, बहुत तैं रोवा'। (पुं॰ बहुवचन) तुम

मध्यम पुरुष के रूप ही आज्ञा में भी वहाँ आते हैं जहाँ खड़ी बोली में साधारण क्रिया का प्रयोग होता है; जैसे—

आयसु लिहे रहिउ निति हाथा। सेवा करिउ लाइ भुँइ माथा॥

प्रथम पुरुष की भूतकालिक क्रिया के स्त्रीलिंग रूपों में 'एसि' औ 'एनि' की जगह 'इसि' ओर 'इनि' अंत में होते हैं, जैसे—पु॰ 'लखेनि', स्त्री॰ 'लखिनि'। बोलचाल में अकसर अंत्य 'नि' निकालकर बचे हुए खंड के अंतिम स्वर को सानुनासिक कर देते हैं—जैसे पु॰ 'गएनि', 'लखेनि' को 'गएँ', 'लखें' और स्त्री॰ 'गइनि', 'लखिनि' को 'गईं', 'लखीं' भी बोलते हैं। जायसी ने बोलचाल के इस रूप का भी प्रयोग किया है—

लछिमी लखन बतीसौ लखीं

(लखीं=लखिन्हि या लखिनि)