सोने या चाँदी के महीन वरक या पत्रों के कटे हुए टुकड़े होते थे जिन्हें कानों के पास से लेकर कपोलों तक एक पंक्ति में चिपकाते थे। आजकल हम रामलीला आदि में उसी रीति पर चमकी या सितारे चिपकाते हैं। स्त्रियाँ अब तक माथे पर इस प्रकार के बुंदे चिपकाती हैं। पत्रभंग शब्द से भी इसी बात का संकेत मिलता है। खैर जो हो, जायसी ने इस पत्रावलिरचना का उल्लेख पद्मावती के शृंगार के प्रसंग में (विवाह के उपरांत प्रथम समागम के अवसर पर) किया है—
रचि पत्रावलि, माँग सेंदूरू। भरे मोति औ मानिक चूरू॥
प्राचीन काल में प्रधान राजमहिषी या पटरानी को 'पट्टमहादेवी' कहते थे। यह उस समय की बात है जब क्षत्रिय लोग एक दूसरे को 'सलाम' नहीं करते थे और 'रानी' शब्द के आगे 'साहबा' नहीं लगता था—जब हमारा अपना निज का शिष्टाचार था, फारसी तहजीब की नकल मात्र नहीं। राजा रत्नसेन को चित्तौर से गए बहुत दिन हो जाने पर जब नागमती विरह से व्याकुल होती है तब दासियाँ समझाती हैं—
पाट महादेइ! हिये न हारू। समुझि जीउ चित चेत सँभारू॥
यह 'पाट महादेइ' शब्द 'पट्टमहादेवी' का अपभ्रंश है।
भारतीय 'वरपूजा' का प्रसंग बड़ी मार्मिकता से बड़े सुंदर अवसर पर जायसी लाए हैं। जिस समय बादल के साथ राजा रत्नसेन छूटकर आता है उस समय पद्मावती बादल की आरती उतारती है—
परसि पायँ राजा के रानी। पुनि आरति बादल कहँ आनी॥
पूजे बादल के भुजदंडा। तुरी के पाँव दाव करखंडा॥
प्राचीन काल में वर्षाऋतु में सब प्रकार की यात्रा बंद रहती थी। शरद् ऋतु आते ही वणिकों की विदेशयात्रा और राजाओं की युद्धयात्रा होती थी। शरत् के वर्णन में पुराने कवि राजाओं की युद्धयात्रा का भी उल्लेख करते हैं। इसी पुरानी रीति के अनुकूल गोरा बादल प्रतिज्ञा करते समय पद्मिनी से कहते हैं—
उए अगस्त हस्ति जब गाजा। नीर घटै घर, आइहि राजा॥
बरसा गए, अगस्त के दीठी। परै पलानि तुरंगन्ह पीठी॥
राजपूतों की भिन्न भिन्न जातियों के बहुत से नाम तो जायसी को मालूम थे पर इस बात का ठीक ठीक पता उन्हें न था कि किस जाति का राज्य कहाँ था। यदि इसका पता होता तो वे रत्नसेन को चौहान न लिखते। रत्नसेन को जब सूली देने के लिये ले जाते थे तब भाँट ने राजा गंधर्वसेन से उनका परिचय इस प्रकार दिया था—
जंबूदीप चित्तउर देसा। चित्रसेन बड़ तहाँ नरेसा॥
रतनसेन यह ताकर बेटा। कुल चौहान जाइ नहिं मेटा॥
यह इतिहासप्रसिद्ध बात है कि चित्तौर में बाप्पा रावल के समय से अंत तक सिसोदियों का राज्य चला आ रहा है।