हौवा के कहने से एक वृक्षविशेष का फल खाना लिखा है। मुसलमानों में यह वृक्ष गेहूँ प्रसिद्ध है। अखरावट में तो इस कहानी का उल्लेख है ही, पदमावत में भी पद्मावती की सखियाँ उसकी विदाई के समय कहती हैं—
आदि अंत जो पिता हमारा। ओहु न यह दिन हिए विचारा॥
छोह न कीन्ह निछोही ओहू। का हम्ह दोष लाग एक गोंहूँ॥
एक पढ़ा लिखा मुसलमान फारसी से अपरिचित हो, यह हो ही नहीं सकता। फारसी शायरों की कई उक्तियाँ पदमावत में ज्यों की त्यों आई हैं। अलाउद्दीन की चढ़ाई का वर्णन करते हुए घोड़ों की टापों से उठी धूल के प्रकाश में छा जाने पर जायसी कहते हैं—
सत खंड धरती भइ षट खंडा। ऊपर अस्ट भए बरम्हंडा॥
यह फिरदौसी के शाहनामे के इस शेर का ज्यों का त्यों अनुवाद है—
जे तुम्मे सितोराँ दरा पन्हे दश्त। जमीं शश शुदो, आस्माँ गश्त हश्त॥
अर्थात्—उस लंबे चौड़े मैदान में घोड़ों की टाप से जमीन सात खंड के स्थान पर छह ही रह गई और सात खंड (तबक) के स्थान पर प्रखंड का हो गया। मुसलमानों की कल्पना के अनुसार भी सात लोक नीचे हैं (तल, वितल, रसातल के समान) और सात लोक ऊपर।
राजा रत्नसेन का संदेश सुआ इस प्रकार कहता है—
दुहुँ जिउ रहै कि निसरै, काह रजायसु होइ?
यह हाफिज के इस शेर का भाव है—
अज्म दोहारे तू दारद जान वर लव आमदः।
बाज गरदद या बर आयद चीस्त फरमाने शुभा॥
कवियों के भावों के अतिरिक्त फारसी की चलती कहावतों की भी छाया कहीं कहीं दिखाई पड़ती है; जैसे—
(क) नियरहिं दूर फूल जस काँटा। दूरहिं नियर सो जस गुर चाँटा॥
फारसी—दूराँ बाबसर नजदीक बा नजदीकाँ बेबसर दूर (अर्थात् दृष्टिवाले को दूर भी नजदीक और बिना दृष्टिवाले को नजदीक भी दूर है)।
(ख) परिमल प्रेम न आछे छापा।
फारसी—इश्क व मुश्क रा नतवाँ नहुपतन।
(प्रीति और कस्तूरी छिपाए नहीं छिपती)
हिंदुओं की ऐसी प्राचीन रीतियों का उल्लेख भी पदमावत में मिलता है जो जायसी के समय तक न रह गई होंगी। जायसी ने उनका उल्लेख साहित्य की परंपरा के अनुसार किया है। पत्रावलि या पत्रभंगरचना प्राचीन समय में ही शृंगार करने में होती थी। वह किस प्रकार होती थी, इसका ठीक पता आजकल नहीं है। कुछ लोग चंदन या रंग से गंडस्थल पर चित्र बनाने को पत्रभंग कहते हैं। प्राचीन रीति, नीति औंर वेशविन्यास जानने की अपनी बड़ी पुरानी उत्कंठा के कारण उनके संबंध में जो कुछ विचार हम अपने मन में जमा सके हैं उसके अनुसार पत्रभंग