जायगा तो चलनेवाला उड़ीसा में पहुँचेगा, अतः कुछ दूर बढ़ने पर उड़ीसा जानेवाला मार्ग छोड़कर शुक रत्नसेन को दक्षिण की ओर घूम पड़ने को कहता है। दक्षिण घूमने पर कलिंग देश में समुद्र का घाट मिलेगा—
आगे पाव उड़ैसा, बाएँ दिए सो बाट।
दहिनावरत देइ कै, उतरु समुद्र के घाट॥
ऊपर के विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जायसी ने चित्तौर से कलिंग तक जाने का जो मार्ग लिखा है वह यों ही ऊटपटांग नहीं है। उत्तरोत्तर पड़नेवाले प्रदेशों का क्रम ठीक है।
जायसी को बहुत दूर दूर के स्थानों के नाम मालूम थे। बादशाह की जब योगिनी बनकर चित्तौर गई है तब उसने अपने तीर्थाटन के वर्णन में बहुत से तीर्थों के नाम बताए हैं जिनमें से अधिकतर तो बहुत प्रसिद्ध हैं पर कुछ ऐसे प्रसिद्ध स्थान भी आए हैं जिन्हें इधर के लोग कम जानते हैं, जैसे नागरकोट और बालनाथ का टीला—
गउमुख हरिद्वार फिरि कीन्हिउँ। नगरकोट कटि रसना दीन्हिउँ।
ढूंढ़िउँ बालनाथ कर टीला। मथुरा मथिउँ न सो पिउ मीला॥
'नागरकोट' काँगड़े में है जहाँ लोग ज्वालादेवी के दर्शन को जाते हैं। 'बालनाथ का टीला' भी पंजाब में है। सिंध और झेलम के बीच सिंध सागर दोआब में जो नमक के पहाड़ पड़ते हैं उसी के अंतर्गत यह एक बहुत ऊँची पहाड़ी है जिसमें बालनाथ नामक एक योगी की गुफा है।[१] साधु यहाँ बहुत जाते हैं।
इतिहास का ज्ञान भी जायसी को जनसाधारण से बहुत अधिक था। इसका एक प्रमाण तो 'पदमावत' का प्रबंध ही है। जैसा कि आरंभ में कहा जा चुका है, पद्मिनी और हीरामन सूए की कहानी उत्तरीय भारत में, विशेषतः अवध में, बहुत दिनों से प्रसिद्ध चली आ रही है। कहानी बिल्कुल ज्यों की त्यों यही है। पर कहानी कहनेवाले राजा का नाम, बादशाह का नाम आदि कुछ भी नहीं बताते। वे यों ही कहते हैं कि 'एक राजा था', एक बादशाह था। समय के फेर से जैसे कहानी इतिहास हो जाती है वैसे ही इतिहास कहानी। अतः जायसी ने जो चित्तौर, रत्नसेन, अलाउद्दीन, गोरा, बादल आदि नाम देकर इस कहानी का वर्णन किया है उससे यह स्पष्ट है कि वे जानते थे कि घटना किस स्थान की और किस बादशाह के समय की है, पद्मिनी किसकी रानी थी और किस राजपूत ने युद्ध में सबसे अधिक वीरता दिखाई थी। इसके अतिरिक्त अलाउद्दीन की और चढ़ाइयों का भी उन्हें पूरा पता था, जैसे देवगिरि और रणथंभौर गढ़ पर की चढ़ाई का। देवगिरि पर चढ़ाई अलाउद्दीन ने अपने चाचा सुल्तान जलालुद्दीन के समय में ही सन् १२९६ ई° में की थी। रणथंभौर पर चढ़ाई उसने बादशाह होने के चार वर्ष पीछे अर्थात् सन् १३०० में की थी पर उसे ले न सका था। दूसरे वर्ष सन् १३०१ में रणथंभौर गढ़ टूटा है और प्रसिद्ध वीर हम्मीर मारे गए हैं। ये दोनों घटनाएँ चित्तौर टूटने (सन् १३०१ ई°)
- ↑ बालनाथ नाथसंप्रदाय या गोरखपंथ के एक योगी हो गए हैं।