आश्चर्य नहीं। जायसी सिंहलद्वीप को चित्तौर से पूरब समझते थे, जैसा कि इस चौपाई से प्रकट होता है—
पच्छिउँ कर बर, पुरुब क बारी।
जोरी लिखी न होइ निनारी॥
लंका को वे सिंहल के दक्षिण मानते थे, यह बात उस प्रसंग को ध्यान देकर पढ़ने से विदित हो जाती है जिसमें सिंहल से लौटते समय तूफान में बहकर रत्नसेन के जहाज नष्ट हुए थे। जायसी लिखते हैं कि जहाज आधे समुद्र में भी नहीं आए थे कि उत्तर की हवा बड़े जोर से उठी—
आधे समुद ते आए नाहीं।
उठी बाउ आँधी उतराहीं॥
इस तूफान के कारण जहाज भटककर लंका की ओर चल पड़े—
बोहित चले जो चितउर ताके। भए कुपंथ लंक दिसि हाँके॥
उत्तर की ओर से आँधी आने से जहाज दक्षिण की ओर ही जायँगे। इससे लंका सिंहल से दक्षिण की ओर हुई।
इस अज्ञान के होते हुए भी जनता के बीच प्राचीन काल की विलक्षण स्मृति का आभास पदमावत में मिलता है। भारत के प्राचीन इतिहास का विस्तृत परिचय रखनेवाले मात्र यह जानते होंगे कि प्राचीन हिंदुओं के अर्णवपोत पूर्वीय समुद्रों में बराबर दौड़ा करते थे। पच्छिम के समुद्रों में जाने का प्रमाण तो वैसा नहीं मिलता पर पूर्वीय समुद्रों में जाने के चिह्न अब तक वर्तमान हैं। सुमात्रा, जावा आदि द्वीपों में हिंदू मंदिरों के चिह्न तथा सुदूर वाली लंबक आदि द्वीपों में हिंदुओं की बस्ती अब तक पाई जाती है। बंगाल की खाड़ी से लेकर प्रशांत महासागर के बीच होते हुए चीन तक हिंदुओं के जहाज जाते थे। ताम्रलिप्ति (आधुनिक तमलूक जो मेदिनीपुर जिले में है) और कलिंग में पूर्व समुद्र में जाने के लिये प्रसिद्ध बंदरगाह थे। फाहियान नामक चीनी यात्री, जो द्वितीय चंद्रगुप्त के समय भारतवर्ष में आया था, ताम्रलिप्ति ही से जहाज पर बैठकर सिंहल और जावा होता हुआ अपने देश को लौटा था। उड़ीसा के दक्षिण कलिंग देश में कोरिंगापटम (कलिंगपट्टन) नाम का एक पुराना नगर अब भी समुद्र तट पर है। बाली और लंबक टापुओं के हिंदू अपने को कलिंग ही से आए हुए बताते हैं। जायसी के समय में यद्यपि हिंदुओं का भारतवर्ष के बाहर जाना बंद हो गया था पर समुद्र के उस पुराने घाट (कलिंग) की स्मृति बनी हुई थी—
आगे पाव उड़ैसा, बाएँ दिए सो बाट। दहिनाबरत देइकै उतरु समुद के घाट॥
यहीं तक नहीं, पूर्वीय समुद्र की कुछ विशेष बातें भी उस समय तक लोक-स्मृति में बनी हुई थीं। प्रशांत महासागर के दक्षिण भाग में मूँगों से बने हुए टापू बहुत से हैं। कहीं कहीं मूँगों की तह जमते जमते टीले बन जाते हैं। कपूर निकालनेवाले पेड़ भी प्रशांत महासागर के टापुओं में बहुत हैं। इन दोनों बातों पर प्राचीन समुद्रयात्रियों का ध्यान विशेष रूप से गया होगा। इनका स्मरण जनता के बीच बना हुआ था, इसका पता जायसी इस प्रकार देते हैं—