'पुहुमी' आदि शब्दों का प्रयोग तथा प्राकृत अपभ्रंश की पुरानी प्रथा के अनुसार 'हि' विभक्ति का सब कारकों में व्यवहार देख यह दृढ़ अनुमान होता है कि जायसी ने किसी से भाषा-काव्य-परंपरा की जानकारी प्राप्त की थी। सैरंध्री' (सैरंध्री-द्रौपदी), 'गंगेऊ (गांगेय = भीष्म ), 'पारथ' ऐसे अप्रचलित शब्दों का जो कहीं कहीं उन्होंने व्यवहार किया है वह इसी जानकारी के बल से, न कि संस्कृत के अभ्यास के बल से।
यह ठीक है कि संस्कृत कवियों के भाव कहाँ कही ज्यों के त्यों पाए जाते हैं, जैसे इस दोहे में—
भँवर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि।
आई परा कोइ हस्ति तहँ, चूर किएउ सो बेलि॥
यह इस श्लोक का अनुवाद जान पड़ता है—
रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे
हा हन्त! हन्त! नलिनीं गज उज्जहार॥
इसी प्रकार—
'शैले शैले न माणिक्य, मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र, चंदनं न वने वने॥'
चाणक्य के इस श्लोक का हिंदी रूप भी पदमावत में मौजूद है—
थल थल नग न होहिं जेहि जोती। जल जल सीप न उपनहिं मोती॥
बन बन बिरिछ न चंदन होई। तन तन विरह न उपनै सोई॥
पर इस प्रकार के भाव भी उन्हें भाषाकाव्य द्वारा ही मिले।
छंदःशास्त्र के ज्ञान का प्रमाण जायसी की रचनाओं से नहीं मिलता। चौपाई बहुत ही सीधा छंद है, पर उसमें भी कहीं १६ मात्राएँ हैं, कहीं १५ ही। दोहों के चरण तो प्रायः गड़बड़ हैं। तुलसीदास जी के दोहों में भी कहीं कहीं मात्राएँ घटती हैं, पर जायसी में तो बहुत कम दोहे ऐसे मिलेंगे जो ठीक उतरते हों। विषम चरण कोई ११ मात्राओं का है, कोई १६–जैसे,
(क) जो चाहा सो किन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह।
(ख) काया मरम जान पै रोगी, भोगो रहै निश्चिंत॥
'नखशिख' में आए हुए उपमान प्रायः सब काव्यप्रसिद्ध ही हैं। बहुत सी चमत्कारपूर्ण उक्तियाँ भी पुरानी हैं जिसका प्रयोग सूर आदि और समसामयिक कवियों ने भी किया है। उदाहरण के लिये यह मनोहर उक्ति लीजिए—
गहै बीन मकु रैनि बिहाई। ससि वाहन तहँ रहै ओनाई॥
सूरदास जी ने भी इस उक्ति की योजना की है—
दूर करहु बीना कर धरिबो।
मोहे मृग नाहीं रथ हाँक्यो, नाहि न होत चंद को ढरिबो॥