पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१५४

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दरब तें निरगुन होई गुनवंता। दरब तें कुबुज होइ रुपवंता है॥
दरब रहै भुइँ, दिपै लिलारा। अस मन दरब देइ को पारा?

(ख) साँठि होई जेहि तेहि सब बोला। निसँठ जो पुरुष पात जम डोला॥
साँठहिं रक चलै झौंराई। निसँठ राव सब कह बौराई॥
साँठिहि आव गरब तन फूल। निसँठिहि बोल बुद्धि बल भूला॥
साँठिहि जागि नींद निसि जाई। निसँठहि काह होई औंधाई॥
साँठिहि दिस्टि जोति होइ नैना। निसँठ होह, मुख आव न बैना॥


जायसी की जानकारी

साहित्य की दृष्टि से जायसी की रचना की जो थोड़ी बहुत समीक्षा हुई उससे यह तो प्रकट ही है कि उन्हें भारतीय काव्यपद्धति और भाषासाहित्य का अच्छा परिचय था। भिन्न भिन्न अलंकारों की योजना काव्यसिद्ध उक्तियों का विस्तृत समावेश (जैसा कि नखशिख वर्णन में है) के प्रबंध काव्य के भीतर निर्दिष्ट वर्ण्य विषयों का सन्निवेश (जैसे जलक्रीड़ा, समुद्रवर्णन) प्रचलित काव्यरीति के परिज्ञान के परिचायक हैं। यह परिज्ञान किस प्रकार का था, यह ठीक नहीं कहा जा सकता है। वे बहुश्रुत थे, बहत प्रकार के लोगों से उनका सत्संग था यह तो आरंभ में ही कहा जा चुका है। पर उनके पहले चारणों के वीरकाव्यों और कबीर आदि कुछ निर्गुणोंपासक भक्तों की वाणियों के अतिरिक्त और नाम लेने लायक काव्यों का पता न होने से यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने काव्यों और रीतिग्रंथों का क्रमपूर्वक अध्ययन किया था। "ग्रियर्सन साहब ने लिखा है कि जायस में जाकर जायसी ने पंडितों से संस्कृत काव्यरीति का अध्ययन किया। इस अनुमान का उन्होने कोई आधार नहीं बताया। संस्कृतज्ञान का अनुमान जायसी की रचना से तो नहीं होता। उनका संस्कृत शब्दभंडार बहुत परिमित है। उदाहरण के लिये 'सूर्य' और 'चंद्र' ये दो शब्द लीजिए जिनका व्यवहार जायसी ने इतना अधिक किया है कि जी ऊब जाता है। इन दोनों शब्दों के कितने अधिक पर्याय संस्कृत में हैं, यह हिदी जाननेवाले भी जानते हैं। पर जायसी ने सूर्य के लिये रवि, भानु और दिनअर (दिनकर) और चंद्र के लिये ससि, ससहर और मयंक (मृगांक) शब्दों का ही व्यवहार किया है। दूसरी बात यह है कि संस्कृताभ्यासी से चंद्र को स्त्रीरूप में कल्पित करते न बनेगा।

यह प्रारंभ में ही कह आए हैं कि पद्‌मावत के ढंग के चरितकाव्य जायसी के पहले बन चुके थे। अतः जायसी ने काव्यशैली किसी पंडित से न सीखकर किसी कवि से सीखी। उस समय कायव्यवसायियों को प्राकृत पर अपभ्रंश से पूर्ण परिचित होना पड़ता था। छंद और रीति आदि के ज्ञान के लिये भाषाकविजन प्राकृत और अपभ्रंश का सहारा लेते थे। ऐसे ही किसी कवि से जायसी ने काव्य रीति सीख़ी होगी। पद्‌मावत में 'दिनिअर’, ‘ससहर', 'अहुठ', 'भुवाल', 'विसहर’