मुहमद विरिध जो नइ चलै, काह चलै भुइँ टोइ।
जोबन रतन हेरान है, मकु धरती पर होइ॥
विरिध जो सीस डोलावै, सीस धुनै तेहि रीस।
बूढ़ी आउ होहु तुम्ह, केइ यह दीन्ह असीस॥
यहाँ यौवनावस्था के प्रति मनुष्य का जो स्वाभाविक राग होता है उसकी व्यंजना चमत्कार की अपेक्षा प्रधान है।
मिट्टी पर यह उक्ति देखिए— माटी मोल न किछु लहै, औ माटी सब मोल। दिस्टि जो माटी सौं करै, माटी होइ अमोल॥
यों तो मिट्टी का कुछ भी मूल्य नहीं कहा जाता पर इसी मिट्टी अर्थात् मनुष्य-शरीर का बहुत कुछ मूल्य है। मिट्टी पर भी यदि दृष्टि करे अर्थात् तुच्छ से तुच्छ का भी तिरस्कार न करे तो मिट्टी (शरीर) अमूल्य हो जाय। इसमें विनय या दैन्य का भाव प्रकट होता है।
'जेहि पर जेहि कर सत्य सनेहु, सो तेहि मिलत न कछु संदेहू' इस बात को प्रत्यक्ष करने के लिये जायसी ने बहुत दूर की दो वस्तुओं का एकत्र होना दिखाया है—
बसै मीन जल धरती, अंबा बर्स अकास।
जो पिरीत पै दुवौ महँ, अंत होहिं एक पास॥
इस कथन में जायसी केवल प्रमाण द्वारा निश्चय कराते हुए जान पड़ते हैं, यद्यपि प्रमाण तर्क की कोटि का नहीं है। यदि प्रमाण तर्क की कोटि का होता तो हम इस उक्ति को साधारण तथ्यकथन कहते, पर उसका न्यास काव्य की रीति पर है अतः इस उक्ति को हम काव्याभास कहेंगे।
कौवे सवेरा होने पर क्यों काँव काँव करके चिल्लाते हैं? जायसी कहते हैं कि यह देखकर चिल्लाते हैं कि रात्रि की इतनी फैली हुई कालिमा तो छूट गई, वे ही ऐसे अभागे हैं जिनकी कालिमा ज्यों की त्यों बनी है—
भोर होइ जौ लागै, उठहिं रोर कै काग।
मसि छूटै सब रैनि कै, कागहि केर भाग॥
इस उक्ति में भी जो कुछ है वह वैलक्षण्य ही है, यद्यपि कालिमा या बुराई की ओर अरूचि की भी झलक है।
फुटकल प्रसंग
पदमावत के बीच में बहुत से ऐसे फुटकल प्रसंग भी आए हैं जैसे, दानमहिमा, द्रव्यमहिमा, विनय इत्यादि। ऐसे विषयों के वर्णन को काव्यपद्धति के भीतर करने के लिये कविजन या तो उनके प्रति अनुराग, श्रद्धा, विरक्ति आदि अपना