पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१४९

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बरुनि चाप अस ओपहँ, बेधे रन वन ढाँख।
सौजहि तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥

पृथ्वी और स्वर्ग, जीव और ईश्वर, दोनों एक थे, बीच में न जाने किसने इतना भेद डाल दिया है—

धरती सरग मिले हुत दोऊ। केइ निनार कै दीन्ह बिछोऊ॥

जो इस पृथ्वी और स्वर्ग के वियोगतत्व को समझेगा और उस वियोग में पूर्ण रूप से सम्मिलित होगा उसी का वियोग सारी सृष्टि में इस प्रकार फैला दिखाई देगा—

सूरुज बूड़ि उठा होइ ताता। औ मजीठ टेसू बन राता॥
भा बसंत, रातों वनसपती। औ राते सब जोगी जती॥
भूमि जो भीजि भएउ सब गेरू। औ राते सब पंखि पखेरू॥
राती सती, अगिनि सब काया। गगन मेघ राते तेहि छाया॥

सायं प्रभात न जाने कितने लोग मेघखंडों को रक्तवर्ण होते देखते हैं पर किस अनुराग से वे लाल हैं इसे जायसी ऐसे रहस्यदर्शी भावुक ही समझते हैं।

प्रकृति के सारे महाभूत उस 'अमरधाम' तक पहुँचने का बराबर प्रयत्न करते रहते हैं पर साधना पूरी हुए बिना पहुँचना असंभव है—

धाइ जो बाजा कै मन साधा। मारा चक्र, भएउ दुइ आधा॥
चाँद सुरुज औ नखत तराईं। तेहि डर अँतरिख फिरिहिँ सवाईं॥
पवन जाइ तहँ पहुँचै चहा। मारा तैस लोटि भुइँ रहा॥
अगिनि उठी, जरि बुझी निआना। धुँआ उठा, उठि बीच बिलाना॥
पानि उठा, उठि जाइ न छूआ।[] बहुरा रोइ आइ भुइँ चूआ॥

इस अद्वैती रहस्यवाद के अतिरिक्त जायसी कहीं कहीं उस रहस्यवाद में आ फँसे हैं जो पाश्चात्यों की दृष्टि में 'झूठा रहस्यवाद' है। उन्होंने स्थान स्थान पर हठयोग, रसायन आदि का भी आश्रय लिया है।


सूक्तियाँ

सूक्तियों से मेरा अभिप्राय वैचित्यपूर्ण उक्तियों से है जिसमें वाक्‌चातुर्य ही प्रधान होता है। कोई बात यदि नए अनूठे ढंग से कही जाय तो उससे लोगों का बहुत कुछ मनोरंजन हो जाता है, इससे कवि लोग वाग्वैदग्ध्य से प्रायः काम लिया करते हैं। नीति संबंधी पद्यों में चमत्कार की योजना अकसर देखने में आती है। जैसे, बिहारी के ‘कनक कनक ते सौ गुनी' वाले दोहे में अथवा रहीम के इस प्रकार के दोहों में—

(क) बड़े पेट के भरन में, है रहीम दुख बाढ़ि।
तातें हाथी हहरि कै, दिए दाँत द्वै काढ़ि


  1. ‘उठि जाइ न छूआ' के स्थान पर यदि 'उठि होइ गा धूआ' पाठ होता तो और भी अच्छा होता।