भावात्मक शैली का अवलंबन करता है, उसी प्रकार उन प्राचीन ऋषियों को भी विचार करते करते गंभीर मार्मिक तथ्य पर पहुँचने पर कभी कभी भावोन्मेष हो जाता था और वे अपनी उक्ति का प्रकाश रहस्यात्मक और अच्छे ढंग से कर देते थे।
गीता के दसवें अध्याय में सर्ववाद का भावात्मक प्रणाली पर निरूपण है। वहाँ भगवान् ने अपनी विभूतियों का जो वर्णन किया है वह अत्यंत रहस्यपूर्ण है। सर्ववाद को लेकर जब भक्त की मनोवृत्ति रहस्योन्मुख होगी तब वह अंपने को जगत् के नाना रूपों के सहारे उस परोक्ष सत्ता की ओर ले जाता हुआ जान पड़ेगा। वह खिले हुए फूलों में, शिशु के स्मित आनन में, सुंदर मेघमाला में, निखरे हुए चंद्रबिंब में उसके सौंदर्य का, गंभीर मेघगर्जन में, बिजली की कड़क में, वज्रपात में, भूकंप आादि प्राकृतिक विप्लवों में उसकी रौद्र मूर्ति का,; संसार के असामान्य थारों, परोपकारियों और त्यागियों में उसकी शक्ति, शील आदि का साक्षात्कार करता है। इस प्रकार अवतारवाद का मूल भी रहस्यभावना ही ठहरती है।
पर अवतारवाद के सिद्धांत रूप में गृहीत हो जाने पर राम कृष्ण के व्यक्त ईश्वर विष्णु के अवतार स्थिर हो जाने पर रहस्यदशा की एक प्रकार से समाप्ति हो गई। फिर राम और कृष्ण का ईश्वर के रूप में ग्रहण व्यक्तिगत रहस्यभावना के रूप में नहीं रह गया। वह समस्त जनसमाज के धामिक विश्वास का एक अंग हो गया। इसी व्यक्त जगत् के बीच प्रकाशित राम कृष्ण की नरलीला भक्तों के भावोद्रेक का विषय हुई। अतः रामकृष्णोपासकों की भक्ति रहस्यवाद की कोटि में नहीं जा सकती।
यद्यपि समष्टि रूप में वैष्णवों को सगुणोपासना रहस्यवाद के अंतर्गत नहीं कही जा सकती, पर श्रीमद्भागवत के उपरांत कृष्णभक्ति को जो रूप प्राप्त हुआ उसमें रहस्यभावना की गुंजाइश हुई। भक्तों की दृष्टि से जब धीरे धीरे श्रीकृष्ण का लोकसंग्रही रूप हटने लगा और वे प्रेममूर्ति मान रह गए तब उनकी भावना ऐकांतिक हो चली। भक्त लोग भगवान को अधिकतर अपने संबंध से देखने लगे, जगत् के संबंध से नहीं। गोपियों का प्रेम जिस प्रकार एकांत और रूपमाधुर्य मात्र पर आश्रित था उसी प्रकार भक्तों का भी हो चला। यहाँ तक कि कुछ स्त्री भक्तों में भगवान् के प्रति उसी रूप का प्रेमभाव स्थान पाने लगा जिस रूप का गोपियों का कहा गया था। उन्होंने भगवान् की भावना प्रियतम के रूप में की। बड़े बड़े मंदिरों में देवदासियों की जो प्रथा थी उससे इस ‘माधुर्यभाव' को और भी सहारा मिला। माता पिता कुमारी लड़कियों को मंदिर में दान कर आते थे, जहाँ उनका विवाह देवता के साथ हो जाता था। अतः उनके लिये उस देवता की भक्ति पतिरूप में ही विधेय थी। इन देवदासियों में से कुछ उच्च कोटि की भक्तिनें भी निकल आती थीं। दक्षिण में अंदाल इस प्रकार की भक्तिन थी जिसका जन्म विक्रम संवत ७७३ के आसपास हुआ था। यह बहुत छोटी अवस्था में किसी साधु को एक पेड़ के नीचे मिली थी। वह साधु भगवान् का स्वप्न पाकर, इसे विवाह के वस्त्र पहनाकर श्रीरंग जी के मंदिर में छोड़ आया था।
अंदाल के पद द्रविड़ भाषा में 'तिरुप्पावइ' नामक पुस्तक में अबतक मिलते हैं। अंदाल एक स्थान पर कहती है—‘मैं पूर्ण यौवन को प्राप्त हैं और स्वामी कृष्ण