पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१३७

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अब यह देखिए कि तत्वदृष्टि से जायसी सृष्टिविकास का किस रूप में वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि सृष्टि के पहले ब्रह्म अपने को अपने में समेटे हुए था—'रहा आपु महँ आपु समाना (अखरावट)। सर्गोन्मुख होने के पहले वह 'वज्रबीज' अव्यक्त था—

बजर बीज वीरौ अस, ओहि न रंग न भेस।

अंकुरित होने पर उसमें से दो पत्ते निकले—एक चित्तत्व, दूसरा पार्थिव तत्व—

होतै बिरवा भए दुइ पाता। पिता सरग ओ धरती माता॥

इन्हीं दो से फिर अनेक प्रकार की चराचर सृष्टि हुई—

विरिछ एक लागी दुइ डारा। एकहिं ते नाता परकारा॥
मातु के रक्त पिता के बिंदू। उपने दुवौ तुरुक औ हिंदू॥
रकत हुतें तन भए चौरंगा। बिंदु हुतें जिउ पाँचौं संगा॥
जस ए चारिउ धरति बिलाहीं। तस वै पाँचहुँ सरहिं जाहीं॥

एक ही वृक्ष की दो डालियाँ हुईं—एक चेतन तत्व अर्थात् जीवात्मा और दूसरा अचेतन अर्थात् जड़ द्रव्य। चित् पुरुषपक्ष या पितृपक्ष है और अचित् प्रकृतिपक्ष या मातृपक्ष है। चित् को रूप (चिदाकाश) सूक्ष्म समझना चाहिए और अचित् को पृथ्वीस्वरूप स्थूल।

जबकि व्यक्त चित् (जीव) और व्यक्त चित् (विकृति) दोनों एक ब्रह्म से उत्पन्न हैं तब ब्रह्म में भी ये दोनों पक्ष अव्यक्त वा सूक्ष्म रूप में होंगे। इस प्रकार जायसी के उक्त कथन में रामानुज के विशिष्टाद्वैत की झलक साफ है जिसके अनुसार ब्रह्म चिदचिद्विशिष्ट है अर्थात् चित् और अचित दोनों उसके अंग हैं। जायसी ने आगे चलकर तो ब्रह्म को द्विकलात्मक साफ कहा है—

खा खेलार जस है दुइ करा। उहै रूप आदम अवतरा॥

ब्रह्म के सूक्ष्म चित् से जीवात्माओं की उत्पत्ति और सूक्ष्म अचित् से उनके शरीर और जड़ जगत् की उत्पत्ति हुई। विशिष्टाद्वैत के अनुसार ब्रह्म केवल निमित्त कारण है; उपादान हैं जड़ (स्थूल अचित्) और जीव (स्थूल चित्)। पर दूरारूढ़ वेदांत के अद्वैतवाद में ब्रह्म सब भेदों (स्वगत, सजातीय और विजातीय) से रहित तथा जगत का निमित्त और उपादान दोनों माना जाता है। सूफियों को भी आत्मा और परमात्मा में किसी प्रकार का पारमार्थिक भेद (जन्य जनक का भी) मान्य नहीं है। अतः प्रतियों के अनुकूल यदि हम 'विरिछ एक लागी डारा' दुइ का अर्थ करना चाहें तो जीव और जड़ को क्रमशः ब्रह्म के श्रेष्ठ और कनिष्ठ स्वरूप (जिन्हें गीता में अपरा और प्रकृति कहा है) मानकर कर सकते हैं[१]। श्रेष्ठ स्वरूप निर्विकार रहता है और कनिष्ठ स्वरूप (माया) में अनेक प्रकार के भेद


  1. द्वावेव ब्रह्मणो रूपे, मूर्त्तञ्चैवामूर्त्तञ्च, मर्त्यञ्वामृतञ्च।

    —बृहदारण्यक (मूर्तामूर्त प्रकरण)