पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१३५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ११५ )


नाम, रूप असत्य हैं अर्थात बदलते रहते हैं पर उनकी तह में जो आत्मसत्ता है वह नित्य और अपरिणामी है, इसका स्पष्ट शब्दों में उल्लेख इस सोरठे में है—

विगरि गए सब नावँ, हाथ, पाँव, मुँह, सीस धर।
तोर नावँ केहि ठाँवँ, मुहमद सोइ विचारिए॥—(अखरावट)

नित्य तत्व और नामरूप का भेद समझाने के लिये वेदांती समुद्र और तरंग का या सुवर्ण और अलंकार का दृष्टांत लाया करते हैं। अखरावट में वह भी मौजूद है—

सुन्न समुद्र चख माहि, जल जैसी लहरें उठहिं।
उठि उठि मिटि मिटि जाहिं, मुहमद खोज न पाइए॥

वह व्यक्त तत्व यद्यपि घट घट में व्याप्त है, नामरूपात्मक जगत् की तह में है, पर नामरूपों का उसपर कोई प्रभाव नहीं, वह निर्लिप्त और अविकारी है—'न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:'—

चख महँ नियर, निहारत दूरी। सब घट माहँ रहा भरि पूरी।
पवन न उड़ै, न भीजै पानी। अगिनि जरै जस निरमल बानी॥

ब्रह्म अपनी माया का विस्तार करके उसमें अपना प्रतिबिंब देखता है। इस बात को समझाने के लिये जायसी आँख की पुतली के बिंदु की ओर संकेत करते हैं। यह बिंदु जब अपनी शक्ति का प्रसार करता है तभी जगत् को देखता है। इस बात की ओर पूर्ण ध्यान देकर विचार करने से मनुष्य को दृग्दृश्य विवेक प्राप्त हो सकता है और वह यह समझ सकता है कि दृश्य की प्रतीति होना अव्यक्त में अव्यक्त का सामना ही है, नित्य व्यक्त तत्व ब्रह्म मायापट का विस्तार करके—अर्थात् दिक्काल आदिका आरोप करके—अपना प्रतिबिंब डालता है। अव्यक्तमूल प्रतिबिंब प्रतीति के रूप में फिर उसी व्यक्त नित्य चित्तत्व में पलटकर समाता है—

पुतरी महँ जो बिंदि एक कारी। देख जगत सो पट विस्तारी।
हैरत दिस्टि उघरि तस आई। निरखि सुन्न महँ सुन्न समाई॥

प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक फिक्ट ने भी जगत् की प्रतीति की प्रायः यही पद्धति बताई है।

ब्रह्म को 'ईश्वर' संज्ञा किस प्रकार प्राप्त होती है इसका विवरण वेदांत के ग्रंथों में मिलता है। पहले प्रकृति रजोगुण की प्रवृत्ति से दो रूपों में विभक्त होती है—सत्वप्रधान और तमः प्रधान। सत्वप्रधान के भी दो रूप हो जाते हैं—शुद्ध सत्व (जिसमें सत्व गुण पूर्ण हों) और अशुद्ध सत्व (जिसमें सत्व अंशतः हो)। प्रकृति के इन्हीं भेदों में प्रतिबिंबित होने के अनुसार ब्रह्म कभी 'ईश्वर', कभी 'हिरण्य गर्भ' और कभी 'जीव' कहलाता है। जब माया या शक्ति के तीन गुणों में से शुद्ध सत्व का उत्कर्ष होता है तब उसे 'माया' कहते हैं और इस माया में प्रतिबिंबित होनेवाले ब्रह्म को सगुण यानी व्यक्त ईश्वर कहते हैं। अशुद्ध सत्व की प्रधानता को 'अविद्या' और उसमें प्रतिबिंबित होनेवाले चित् या ब्रह्म को प्राज्ञ या जीव कहते हैं। इस सिद्धांत का भी आभास जायसी ने इस प्रकार दिया है—

भए आपु और कहा गोसाईं। सिर नावहु सगरिउ दुनियाई॥