पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१३०

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अर्थात् सिद्धावस्था जिसमें कठिन उपवास और मौन आदि की साधना द्वारा अंत में साधक की आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है और वह भगवान् की सुंदर प्रेममयी प्रकृति (जमाल) का अनुसरण करता हुआ प्रेममय हो जाता है।

जायसी ने इन अवस्थाओं का उल्लेख 'अरावट' में इस प्रकार किया है—

कही 'सरीअत' चिस्ती पीरू। उधरित असरफ औ जहँगीरू॥
राह 'हकीकत' परै न चूकी। पैठि 'मारफत' मार बुडूकी॥

यह कह आए हैं कि जायसी को विधि पर पूरी आस्था थी। वे उसको साधना की पहली सोढ़ी कहते हैं जिसपर पैर रखे बिना कोई आगे बढ़ नहीं सकता—

साँची राह 'सरीअत' जेहि बिसवास न होइ।
पाँव रखै तेहि सीढ़ी, निभरम पहुँचै सोइ॥

साधक के लिये कहा गया है कि वह प्रकट में तो सब लोकव्यवहार करता रहे, सैकड़ों लोगों के बीच अपना काम करता रहे, पर भीतर हृदय में भगवान् की भावना करता रहे, जैसा कि जायसी ने कहा है—

परगट लोक चार कहु बाता। गुपुत भाउ मन जासौं राता॥

इसे 'खिलवत दर अंजुमन' कहते हैं।

नफ्स के साथ जिहाद करते हुए—इंद्रियदमन करते हुए—उस परमात्मा तक पहुँचने का जो मार्ग बताया गया है वह 'तरीकत' कहलाता है। इस मार्ग का अनुसरण करनेवाले को क्षुत्पिपासा सहन, एकांतवास और मौन का आश्रय लेना चाहिए। इस मार्ग में कई पड़ाव हैं जो 'मुकामात' कहलाते हैं। इनमें से पहला 'मुकाम' है 'तौबा'। जायसी ने जो चार टिकान या बसेरे कहे हैं (चारि बसेरे सौं चढ़े, सत सौं उतरै पार) वे या तो ऊपर कही हुई चार अवस्थाएँ हैं अथवा ये ही मुकामात हैं। वे 'मुकामात' या अवस्थाएँ उन अभ्यंतर अवस्थाओं के अधीन हैं जो परमात्मा के अनुग्रह से कल्प या हृदय के बीच उपस्थित होती हैं और 'अहवाल' कहलाती हैं। इसी 'अहवाल' की अवस्था का प्राप्त होना 'हाल आना' कहलाता है जिसमें भक्त अपने को बिल्कुल भूल जाता है और ब्रह्मानंद में झूमने लगता है। जायसी ने इन पद्यों में इसी अवस्था की ओर संकेत किया है—

कया जो परम तत्त मन लावा। घूमि माति, सुनि और न भावा॥

जस मद पिए घूम कोई नाद सुने पै घूम।
तेहि तें बरजे नीक है, चढ़े रहसि कै दूम॥

इस 'हाल' या प्रलयावस्था के दो पक्ष हैं—त्यागपक्ष और प्राप्तिपक्ष। त्यागपक्ष के अंतर्गत हैं—(१) फना (अनअलग सत्ता की प्रतीति के परे हो जाना), (२) फकद (अहंभाव का नाश) और सुक्र (प्रेममद) प्राप्तिपक्ष के अंतर्गत हैं—(१) बका (परमात्मा में स्थिति), (२) वज्द (परमात्मा की प्राप्ति) और (३) शह्न (पूर्ण शांति)।


१. यह 'हाल' समाधि की अवस्था है जिसकी प्राप्ति सूफी एक भाव 'ईश्वर-प्रणिधान' द्वारा ही मानते हैं।