पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१३

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उच्चारण नहीं रह गए थे, दोनों स्वर मिलकर 'ए' और 'औ' के समान उच्चरित होने लग थे। प्राकृत के 'दैत्यादिष्वउ' और 'पौरादिष्वउ' नियम सब दिन के लिये स्थायी नहीं हो सकते थे। प्राकृत और अपभ्रंश अवस्था पार करने पर उलटी गंगा वही। प्राकृत के 'अइ' और 'अउ' के स्थान पर 'ए' और 'औ' उच्चारण में आए—जैसे प्राकृत और अपभ्रंश रूप 'चलइ', 'पट्ट', 'कइसे', 'चउक्कोर' इत्यादि हमारी भाषा में पाकर 'चलै', 'पैट', 'वैसे', 'चौकोन' इस प्रकार वोले जाने लगे। यदि कहिए कि इनका उच्चारण आजकल तो ऐसा होता है पर जायसी बहुत पुराने हैं, संभवतः उस समय इनका उच्चारण प्राकृत के अनुसार ही होता रहा हो, तो इसका उत्तर यह है कि अभी तुलसीदास जी के थोडे ही दिनों पीछे को लिखी 'मानस' की कुछ पुरानी प्रतियाँ मौजद हैं जिनमें बराबर 'कैसे', 'जैसे', 'तैसे', 'कै', 'करै', 'चौथे', 'करौं', 'श्रावौं' इत्यादि अवध की चलती भाषा के रूप पाए जाते हैं। जायसी और तुलसी ने चलती भाषा में रचना की है. प्राकृत के समान व्याकरण के अनुसार गड़ी हुई भाषा में नहीं। यह दूसरी बात है कि प्राचीन रूपों का व्यवहार परंपरा के विचार से उन्होंने बहुत जगह किया है, पर भाषा उनकी प्रचलित भाषा ही है।

डाक्टर ग्रियर्सन ने 'करइ', 'चलइ', आदि रूपों को ही कविप्रयक्त सिद्ध करने के लिये 'करई', 'धावई' आदि चरण के अंत में आनेवाले रूपों का प्रमाण दिया है। पर 'चलै', 'गनै' आदि रूप भी चरण के अंत में बरवर पाए हैं, जैसे—

(क) इहै बहुत जौ बोहित पाबौं।—जायसी।
(ख) रघबीर बल गर्वित विभीषतु घाल नहि ताकहँ गर्ने।—तुलसी।

चरणांत में ही नहीं, वर्णवृत्तों के बीच में भी ये चलते रूप बराबर दिखाए जा सकते हैं जैसे—

एक एक को न सँभार। करै तात भ्रात पुकार।—तुलसी।

जब एक ही कवि को रचना में नए और पुराने दोनों रूपों का प्रयोग मिलता है, तब यह निश्चित है कि नए रूप का प्रचार कवि के समय में हो गया था और पुराने रूप का प्रयोग या तो उसने छंद की आवश्यकता वश किया है अथवा परंपरापालन के लिये।

हाँ, 'ए' और 'नौ' के संबंध में ध्यान रखने की बात यह है कि इनके 'पूरबी' और 'पच्छिमी' दो प्रकार के उच्चारण होते हैं। पुरको उच्चारण संस्कृत के समान 'अइ' और 'उ' से मिलता जलता और पच्छिमो उच्चारण 'अय' और 'अव' से मिलता जुलता होता है। अवधो भाषा में शब्द के आदि के 'ए' और 'ओ' का अधिकतर पूरवी तथा अंत में पड़नेवाले 'ए' 'औ' का उच्चारण पच्छिमी दंग पर होता है।

'हि' विभक्ति का प्रयोग प्राचीन पद्धति के अनुसार जायसी में सब कारकों के लिये मिलेगा। पर कर्ता कारक में केवल सकर्मक भूतकालिक क्रिया के सर्वनाम कर्ता में तथा आकारांत संज्ञा कर्ता में मिलता है। इन दोनों स्थलों में मैंने प्रायः वैकल्पिक रूप 'इ' (जो 'हि' का ही विकार है) रखा है, जैसे केइ, जेइ, तेइ, राजै, सूए, गौरै, (किसने ,जिसने, उसने, राजा ने, सूए ने, गौरा ने)।