पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१२५

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स्थल देववाद है और अद्वैतवाद सक्ष्म आत्मवाद या ब्रह्मवाद। बहुत से देवी देवताओं को मानना और सबके दादा एक बड़े देवता (ईश्वर) को मानना एक ही बात है। एकेश्वरवाद भी देववाद ही है। भावना में कोई अंतर नहीं है। पर अद्वैतवाद गूढ़ दार्शनिक चिंतन का फल है, सूक्ष्म अंतर्दृष्टि द्वारा प्राप्त तत्व है, जिसको अनुभूतिमार्ग में लेकर सूफी आदि अद्वैती भक्त संप्रदाय चले। एकेश्वरवाद का मतलब यह है कि एक सर्वशक्तिमान सबसे बड़ा देवता है जो सृष्टी की रचना, पालन और नाश करता है। अद्वैतवाद का मतलब है कि दृश्य जगत् की तह में उसका आधारस्वरूप एक ही अखंड नित्य तत्व है और वही सत्य है। उससे स्वतंत्र और कोई अलग सत्ता नहीं है और न आत्मा परमात्मा में कोई भेद है। दृश्य जगत् के नाना रूपों को उसी अव्यक्त ब्रह्म के व्यक्त आभास मानकर सूफी लोग भावमग्न हुआ करते हैं।

अतः स्थूल एकेश्वरवाद और ब्रह्मवाद में भेद यह हुआ कि एकेश्वरवाद के भीतर वाह्यार्थवाद छिपा है क्योंकि वह जीवात्मा, परमात्मा और जड़ जगत् तीनों को अलग अलग तत्व मानता है पर ब्रह्मवाद में शुद्ध परमात्मा के अतिरिक्त और सत्ता नहीं मानी जाती, अात्मा और परमात्मा में भी कोई भेद नहीं माना जाता। अतः स्थल दष्टिवाले पैगंबरी एकेश्वरवादियों के निकट यह कहना कि 'आत्मा और परमात्मा एक ही है' अथवा 'मैं ही ब्रह्म हूँ' कुफ की बात है। इसी से सूफियों को कट्टर मुसलमान एक तरह के काफिर समझते थे। सूफी मजहबी दस्तूर (कर्मकांड और संस्कार) आदि के संबंध में भी कुछ आजाद दिखाई देते थे और मोक्ष के लिये किसी पैगंबर आदि मध्यस्थ की जरूरत नहीं बताते थे। इस प्रकार के भावों का प्रचार वे कथानों द्वारा भी किया करते थे। जैसे, कयामत के दिन जब मुहम्मद साहब खुदा के सामने सबको पेश करने लगेंगे तब कुछ लोग भीड़ से अलग दिखाई देंगे। मुहम्मद साहब कहेंगे 'ऐ ख दाबंद! ये लोग कौन हैं, मैं नहीं जानता।' खुदा उस वक्त कहेगा 'ऐ मुहम्मद! जिनको तुमने पेश किया वे तुम्हें जानते हैं, मुझे नहीं जानते। ये लोग मुझे जानते है, तुम्हें नहीं जानते'। फारस के शिक्षित समाज का झुकाव इसी सूफी मत की ओर बहुत कूछ रहा। जायसी ने सूफियो के उदार प्रेममार्ग के प्रति अपना अनुराग प्रकट किया है--

प्रेम पहार कठिन बिधि गढ़ा। सो पै चढ़े जो सिर सौं चढ़ा।।
पंथ सूरि कर उठा अँकूरू। चोर चढ़े की चढ़ मँसूरू।।

यहाँ पर संक्षेप में सूफी मत का कुछ परिचय दे देना आवश्यक जान पड़ता है। प्रारंभ में सूफी एक प्रकार के फकीर या दरवेश थे जो खुदा की राह पर अपना जीवन ले चलते थे, दीनता और नम्रता के साथ बड़ी फटी हालत में दिन बिताते थे, ऊन के कंबल लपेटे रहते थे, भूख प्यास सहते थे और ईश्वर के प्रेम में लीन रहते थे। कुछ दिनों तक तो इस्लाम की साधारण धर्मशिक्षा के पालन में विशेष त्याग और आग्रह के अतिरिक्त इनमें कोई नई बात या विलक्षणता नहीं दिखाई पड़ती थी। पर ज्यों ज्यों ये साधना के मानसिक पक्ष की ओर अधिक प्रवृत्त होते गए, त्यों त्यों इसलाम के बाह्य विधानों से उदासीन होते गए। फिर तो धीरे धीरे अंत:करण के पवित्रता और हृदय के प्रेम को ही ये मुख्य कहने लगे और बाहरी बातों को