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तुम टारन भारन्ह जग जाने। तुम सुपुरुष जस करन बखाने॥

संसार का भार टालना, बिपत्ति से उद्धार करना, अन्याय और अत्याचार का दमन करना ही क्षात्र धर्म है।

इस क्षात्र धर्म का अत्यंत उज्ज्वल स्वरूप इन दोनों वीरों के आचरण में झलकता है। कवि ने बादल की छोटी अवस्था दिखाकर और उसकी नवागता वधू को लाकर कर्तव्य की एक बड़ी कड़ी कसौटी सामने रखने के साथ संपूर्ण प्रसंग को अत्यंत मर्मस्पर्शी बना दिया। बादल युद्धयात्रा के लिये तैयार होता है। उसकी माता स्नेहवश युद्ध की भीषणता दिखाकर रोकना चाहती है। इसपर वह अपने बल के विश्वास की दृढ़ता दिखाता है। इसके पीछे उसकी तुरंत की आई हुई वधू सामने आकर खड़ी होती है, पर वह हृदय को कठोर करके मुँह फेर लेता है—

तब धनि कीन्हि विहँसि चख दीठी। बादल तबहि दीन्हि फिरि पीठी॥
मुख फिराइ मन अपने रीसा। चलत न तिरिया कर मुख दीसा॥

यह कर्तव्य की कठोरता है। फिर स्त्री फेंटा पकड़ती है; पर बादल छुड़ाकर अपना कर्तव्य समझाता है—

जौ तुइँ गवन आई गजगामी। गवन मोर जहवाँ मोर स्वामी॥

कर्तव्य की यह कठोरता कितनी सुंदर और कितनी मर्मस्पर्शिनी है।

इस आदर्श क्षत्रियवीरता के अतिरिक्त दोनों में युक्तिपटुता का व्यक्तिगत गुण भी हम पूरा पूरा पाते हैं। सोलह सौ पालकियों के भीतर राजपूत योद्धाओं को बिठाकर दिल्ली ले जाने की युक्ति इन्हीं दोनों वीरों की सोची हुई थी, जो पूरी उतरी।

वृद्ध वीर गोरा ने अपने पुत्र बादल को ६०० सरदारों के साथ छूटे हुए राज को पहुँचाने चित्तौर की ओर भेजा और आप केवल एक हजार सरदारों को लेकर बादशाही फौज को तब तक रोके रहा जबतक राजा चित्तौर नहीं पहुँच गया। अंत में उसी युद्ध में वह वीरगति को प्राप्त हुआ। उसके पेट में साँग धँसी और आँतें जमीन पर गिर पड़ीं पर आँतों को बाँधकर वह फिर घोड़े पर सवार हो लड़ने लगा है उसी समय चारण ने साधुवाद दिया—

भाँट कहा, धनि गोरा! तू भी रावन राव।
आँति समेटि बाँधि कै, तुरय देत है पाव॥

बादल भी रत्नसेन की मृत्यु के पीछे चित्तौर गढ़ की रक्षा में फाटक पर मारा गया।

बादल की स्त्री—बादल की स्त्री का चित्रण बराबर तो सामान्य स्त्री के रूप में है पर अंत में वह अपना वीरपत्नी और क्षत्राणी का रूप प्रकट करती है। जब उसने देखा कि पति किसी प्रकार युद्ध से विमुख न होंगे, तब वह कहती है—

जौ तुम कंत! जूझ जिउ बाँधा। तुम, पिउ! साहस, मैं सत बाँधा॥
रन संग्राम जूझि जिति आवहु। लाज होइ जौ पीठि देखावहु॥