पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१२

यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(४)

विचार से। पर अवधी में उत्तमपुरुष बहुवचन में स्त्री॰ पुं॰ दोनों में एक ही रूप रहता है)।

ठीक अर्थ—जहाँ नैहर (मायके) की खबर तक हम न पाएँगी।

(५) चलौं पउनि सब गोहने फूल डार लेइ हाथ। सुधाकरी अर्थ—सब हवा ऐसी या पवित्र हाथ में फूलों की डालियाँ ले लेकर चलीं।

ठीक अर्थ—सब पौनी (इनाम आदि पानेवाली) प्रजा—नाइन, बारिन आादि—फूलों की डालियाँ लेकर साथ चलीं।

इसी प्रकार की भूलों से टीका भरी हुई है। टीका का नाम रखा गया है 'सुधाकर-चंद्रिका'। पर यह चंद्रिका है कि घोर अंधकार? अच्छा हुआ कि एशियाटिक सोसाइटी ने थोड़ा सा निकालकर ही छोड़ दिया।

सारांश यह कि इस प्राचीन मनोहर ग्रंथ का कोई अच्छा संस्करण अब तक न था और हिंदी प्रेमियों की रुचि अपने साहित्य के सम्यक् अध्ययन की ओर दिन दिन बढ़ रही थी। आठ नौ वर्ष हुए, काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने अपनी 'मनोरंजन, पुस्तकमाला' के लिये मुझसे 'पदमावत' का एक संक्षिप्त संस्करण शब्दार्थ और टिप्पणी सहित तैयार करने के लिये कहा था। मैंने आधे के लगभग ग्रंथ तैयार भी किया था। पर पीछे यह निश्चय हुआा कि जायसी के दोनों ग्रंथ पूरे पूरे निकाले जायँ। अतः 'पदमावत' की वह अधूरी तैयार की हुई कापी बहुत दिनों तक पड़ी रही।

इधर जब विश्वविद्यालयों में हिंदी का प्रवेश हुआ और हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य भी परीक्षा के वैकल्पिक विषयों में रखा गया, तब तो जायसी का एक शुद्ध उत्तम संस्करण निकालना अनिवार्य हो गया क्योंकि बी॰ ए॰ और एम॰ ए॰ दोनों की परीक्षाओं में पदमावत रखी गई। पढ़ाई प्रारंभ हो चुकी थी और पुस्तक के बिना हर्ज़ हो रहा था; इससे यह निश्चय किया गया कि समग्र ग्रंथ एकबारगी निकालने में देर होगी; अतः उसके छह छह फार्म के खंड करके निकाले जायँ जिससे छात्रों का काम भी चलता रहे। कार्तिक, संवत् १९८० से इन खंडों का निकलना प्रारंभ हो गया। चार खंडों में 'पदमावत' और 'अखरावट' दोनों पुस्तकें समाप्त हुईं।

'पदमावत' की चार छपी प्रतियों के प्रतिरिक्त मेरे पास कैथी लिपि में लिखी एक हस्तलिखित प्रति भी थी जिससे पाठ के निश्चय करने में कुछ सहायता मिली। पाठ के संबंध में यह कह देना आावश्यक है कि वह अवधी व्याकरण ऑौर उच्चारण तथा भाषाविकास के अनुसार रखा गया है। एशियाटिक सोसायटी की प्रति में 'ए' और 'औ' इन अक्षरों का व्यवहार नहीं हुआ है; इनके स्थान पर 'अइ' और 'अउ' प्रयुक्त हुए है। इस विधान में प्राकृत की पुरानी पद्धति का अनुसरण चाहे हो, पर उच्चारण की उस आगे बढ़ी हुई अवस्था का पता नहीं लगता जिसे हमारी भाषा, जायसी और तुलसी के समय में, प्राप्त कर चुकी थी। उस समय चलती भाषा में 'अइ' और 'अउ' के 'अ' और 'इ' तथा 'अ' और 'उ' के पृथक् पृथक् स्फुट