पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/११८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(९८)

जातिगत स्वभाव के भीतर क्षत्रिय नारी के उपयुक्त पद्मिनी के उस साहसपूर्ण उद्योग को भी लेना चाहिए जो उसने अपने पति के छुटकारे के लिये किया। उसने कैसे प्रोजभरे शब्दों में गोरा बादल को बढ़ावा दिया है।

नागमती--सती नागमती को पहले हम 'रूपगविता' के रूप में देखते हैं। यह रूपगर्व स्त्रियों के जातिगत सामान्य स्वभाव के अंतर्गत समझिए। ऐसा ही सपत्नी के प्रति उसकी ईर्ष्या को भी समझना चाहिए। इस जातिगत ईर्ष्या की मात्रा सामान्य से अधिक बढ़ी हुई हम नहीं पाते हैं जिससे विशेष ईलु प्रकृति का अनुमान कर सकें। नागमती पद्मिनी के विरुद्ध कोई भीषण षड्यंत्र आदि नहीं रचती है। कहीं कहीं तो उसकी ईर्ष्या भी पति की हितकामना के साथ मिश्रित दिखाई पड़ती है। राजा रत्नसेन के बंदी होने पर नागमती इस प्रकार विलाप करती है--

पदमिनि ठगिनि भइ कित साथा। जेहि तें रतन परा पर हाथा।।

इस जातिगत स्वभाव से आगे बढ़कर हम नागमती के आदर्श पक्ष पर आते हैं। पति पर उसका कैसा गूढ़ और गंभीर प्रेम है--यह उसकी वियोगदशा द्वारा व्यक्त होता है! पारिवारिक जीवन की दृष्टि से यह पक्ष अत्यंत गंभीर और मधुर है। पतिपरायणा नागमती जीवनकाल में अपनी प्रेमज्योति से गृह को आलोकित करके अंत में सती की दिगंतव्यापिनी प्रभा से दमककर इस लोक से अदृश्य हो जाती है।

रत्नसेन और बादल की माता--ये दोनों सामान्य माता के रूप में हमारे सामने आती हैं, क्षत्रिय माता के रूप में नहीं। इनके वात्सल्य की व्यंजना में हम उस स्नेह की झलक पाते हैं जो पूत्र के प्रति माता में सामान्यतः होता है। दोनों में किसी प्रकार की व्यक्तिगत विशेषता नहीं दिखाई पड़ती। वर्गविशेष की किसी प्रवृत्ति का भी पता उनमें नहीं है। रण में जाते हुए पुत्र को रोकने का प्रयत्न करके बादल की माता सामान्य माता का रूप दिखाती है, क्षत्राणी या क्षत्रिय माता का नहीं।

राघव चेतन-इस पात्र का स्वरूप समाज की उस भावना का पता देता है जो लोकप्रिय वैष्णव धर्म के कई रूपों में प्रचार के कारण शाक्तों, तांत्रिकों या वाममागियों के विरुद्ध हो रही थी। इस सामाजिक दृष्टि। यदि हम देख हैं तो राघव चेतन वर्गविशेष का उसी प्रकार प्रतिनिधि ठहरता है जिस प्रकार शेक्सपियर के 'वेनिस नगर का व्यापारी' का शाइलाक। यह भूत, प्रेत, यक्षिणी की पूजा करता था। उसकी वृत्ति उग्र और हिंसापूर्ण थी। कोमल और उदात्त भावों से उसका हृदय शून्य था। विवेक का उसमें लेश न था। वह इस बात का मूर्तिमान प्रमाण था कि उत्तम संस्कार और बात है पांडित्य और बात। हृदय के उत्तम संस्कार के बिना श्रेष्ठ आचरण का विधान नहीं हो सकता। उसकी संप्रदायगत प्रवृत्ति के अतिरिक्त उसकी व्यक्तिगत अहंकार वृत्ति का भी कुछ पता इस बात से मिलता है कि वह अपने को औरों से भिन्न और श्रेष्ठ प्रकट करना चाहता था। जो बात सब लोग कहते उसके प्रतिकूल कहकर वह अपनी धाक जमाने की फिक में रहता था। सब पंडितों ने अमावस्या बताई तब उसने द्वितीया कहकर सिद्ध यक्षिणी के बल से अपनी बात रखनी चाही।