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गाढ़ी पीर है। इनमें से पहला अर्थ तो ठीक नहीं होता, क्योंकि कवि की उक्ति का आधार केवल कमल सहृदय का पाला हाना है, सार कमल का पीला होना नहीं। दूसरा अर्थ अलवत्ते सीधा और ठीक जंचता है, पर अन्वय इस प्रकार खींचतान कर करना पड़ता है--'गाढ़ी पीर हिय केसर बरन'। तीसरा अर्थ यदि लेते हैं तो 'पीर' का एक असाधारण विशेषण 'केसर वरन' रखना पड़ता है। इस दशा में 'केसरवर्ण' का लक्षणा से अर्थ करना होगा 'केसरवर्ण करनेवालो', "पीला करनेवाली' और पीड़ा का अतिशय लक्षणा का प्रयोजन होगा। पर योरपीय साहित्य में इस प्रकार की शैली अलंकाररूप से स्वीकृत है और हाईपैलेज कहलाती है। इसमें कोई गुण प्रकृत गुणी से हटाकर दूसरी वस्तु में आरोपित कर दिया जाता है; जैसे यहाँ पीलेपन का गुण 'हृदय' से हटाकर पीड़ा' पर आरोपित किया गया है।

एक उदाहरण और लीजिए--'जस भइँ दहि असाढ़ पलहाई।' इस वाक्य में 'पलुहाई' की संगति के लिये 'भुइँ' शब्द का अर्थ उसपर के घास पौधे अर्थात् आधार के स्थान पर आधेय लक्षणा से लेना पड़ता है। बोलचाल में भी इस प्रकार के रूढ़ प्रयोग आते हैं, जैसे 'इन दोनों घरों में झगड़ा है' योरपीय अलंकार शास्त्र में प्राधेय के स्थान पर आधार के कथन की प्रणाली को मेटानमी अलंकार कहेंगे। इसी प्रकार अंगी के स्थान पर अंग, व्यक्ति के स्थान पर जाति आदि का लाक्षणिक प्रयोग सिनेकडोकी अलंकार कहा जाता है। सारांश यह कि चमत्कार प्रणालिया बहुत सी हो सकती हैं।



स्वभावचित्रण

आरंभ में ही हम यह कह देना अच्छा समझते हैं कि जायसी का ध्यान स्वभावचित्रण की ओर वैसा न था। 'पद्मावत' में हम न तो किसी व्यक्ति के ही स्वभाव का ऐसा प्रदर्शन पाते हैं जिसमें कोई व्यक्तिगत विलक्षणता पूर्ण रूप से लक्षित होती हो, और न किसी वर्ग या सम दाय की ही विशेषताओं का विस्तृत प्रत्यक्षीकरण हमें मिलता है। मनुष्यप्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण का प्रमाण हमें जायसी के प्रबंध के भीतर नहीं मिलता। राम, लक्ष्मण, भरत और परशुराम आदि के चरित्रों में जैसी व्यक्तिगत विशषताएँ तथा कैकेयी, कौशल्या और मंथरा आदि के व्यवहारों में जैसी वर्गगत विशेषताएँ गोस्वामी तुलसीदास जी हमारे सामने रखते हैं, वैसी विभिन्न विशेषताएँ जायसी अपने पात्रों के द्वारा नहीं सामने लाते। इतना होने पर भी कोई यह नहीं कह सकता कि 'पद्मावत' में मानवी प्रकृति के चित्रण का एकदम अभाव है।

प्रबंध काव्य में भाव की व्यंजना पात्रों के वचन और कर्म द्वारा ही होती है, उनके स्वगत भावों और विचारों का उल्लेख बहुत कम मिलता है। 'पद्मावत' में प्रबंध के आदि से लेकर अंत तक चलनेवाले पात्र तीन मिलते हैं--पद्मावती, रत्नसेन और नागमती। इनमें से किसी के चित्र में कोई ऐसी व्यक्तिगत विशेषता