पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/११०

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(६) घट महँ निकट, विकट होइ मेरू। मिलहिं न मिले परा तस फेरू॥

(विशेषोक्ति)

(७) ना जिउ जिए, न दसवँ अवस्था। कठिन मरन तें प्रेम बेवस्था॥

(विरोध)

(८) भूलि चकोर दीठि मुख लावा।(भ्रम)

(९) नैन नीर सौं पोता किया। तस मद चुवा बरा जस दिया॥

(परिणाम)

(१०) जीभ नाहिं पै सब किछु बोला। तन नाहीं सब ठाहर डोला॥

(विभावना)

(११) पदमिनि ठगिनी भइ कित साथा। जेहि तें रतन परा पर हाथा॥

(परिकरांकुर)

(१२) रतन चला भा घर अँधियारा॥(परिकरांकुर)

नीचे पहली पंक्ति में तो 'विषादन' अलंकार की पुरानी उक्ति है जिसका व्यवहार सूरदास ने भी किया है, पर आगे उसमें जायसी ने 'द्वितीय पर्यायोक्ति' का मेल बड़ी सफाई से किया है।

गहै बीन मकु रैनि बिहाई। ससि बाहन तहँ रहै नाई॥ (विषादन)
पुनि धनि सिंघ उरेहे लागै। ऐसिहि बिथा रैनि सव जागै॥

(द्वितीय पर्यायोक्ति)

इतने उदाहरणों से यह स्पष्ट हो गया होगा कि जायसी ने बहुत से अलंकारों का विधान किया है और यह विधान अधिकतर भाव या विषय के अनुरूप तथा अर्थविस्तार में सहायता की दृष्टि से किया है । पर यह कहा जा चुका है कि उन्होंने परंपरापालन का ध्यान भी बहुत रखा है। इससे कहीं कहीं भद्दी परंपरा के भी उदाहरण मिलते हैं। इस प्रकार का एक सांग रूपक और एक परिणाम नीचे दिया जाता है। एक में तो वीररस की सामग्री में शृंगार की सामग्री का आरोप है और दूसरे में शृंगार की सामग्री में वीररस की सामग्री का। पहले स्त्री के रूपक में तोप का यह वर्णन लीजिए—

कहौं सिंगार जैसि वै नारी। दारू पियहिं जैसि मतवारी॥
सेंदुर आगि सोस उपराहीं। पहिया तरिवन चमकत जाहीं॥
कुच गोला दुइ हिरदय लाई। अंचल धुजा रहै छिटकाई॥
रसना लूक रहहिं मुख खोले। लंका जरै सो उनके बोले॥
अलक जंजीर बहुत गिउ बाँधे। खींचहि हस्ती, टूटहिं काँधे॥
वीर सिंगार दोउ एक ठाऊँ। सत्रुसाल गढ़भंजन नाऊँ॥

इसी प्रकार का उदाहरण नीचे 'परिणाम' अलंकार का भी है जो बादल को नवागता बधू के मुँह से कहलाया गया है—

जौ तुम चहहु जूझि, पिय बाजा। कीन्ह सिंगार जूझ मैं साजा॥
जोबन आइ सौंह होइ रोपा। पिघला विरह कामदल कोपा॥
भौंहैं धनुष, नयन सर साँधे। बरुनि बीच काजर विष बाँधे॥