अब इस विवेचन के अनुसार जायसी के उपर्युक्त रूपक की समीक्षा कीजिए.-- यौवनरूप जल, काले केशरूपी भँवर (जलावर्त) और श्वेत केशरूपी हंस। यौवन और जल में उमड़ने या उमंग के धर्म को लेकर साधर्म्य मात्र है। काले केश का पहले तो अतिशयोक्ति में काले भौंरे के साथ वर्णसादृश्य है फिर श्लेप द्वारा रूपक में पहुँचकर जलावर्त के साथ कुछ प्राकृतिसादृश्य (केश कुंचित या घूमे हुए होने से) है। श्वेत केश और हंस में वर्णसादृश्य है। इसके उपरांत जब दूसरी पंक्ति के इस व्यंग्यार्थ पर आते हैं कि युवावस्था में मनुष्य विषयों के चक्कर में पड़ा रहता है और वृद्धावस्था में उसमें सदसद्विवेक करनेवाली आत्मा (हंस) का उदय होता है तब हमें सादृश्य और साधर्म्य दोनों मिल जाते हैं क्योंकि जलावर्त का धर्म है चक्कर में डालना और हंस का स्वभाव है नीर-क्षीर-विवेक।
उसी दूत के मुख से वृद्धावस्था का यह वर्णन गूढ़ ‘अप्रस्तुत प्रशंसा' द्वारा कवि ने कराया है--
छल कै जाइहि बान पै, धनुष छाँड़ि के हाथ।
बान या तोर सोधे शरीर का उपमान है और धनुष झुके हुए शरीर का। ये दोनों क्रमशः युवावस्था और बुढ़ापे के कार्य हैं। अतः कार्य द्वारा कारण के निर्देश से यहाँ 'अप्रस्तुत प्रशंसा' हुई, जो रूपकातिशयोक्ति द्वारा सिद्ध हुई है। इस प्रकार दोनों का 'अंगांगिभाव सकर' है। इसके अतिरिक्त 'बान' शब्द का दूसरा अर्थ वर्ण या कांति लेने से श्लेप को संसष्टि' भी हुई।
कहीं कहीं तो संकर या 'संतष्टि' के बिना ही रूपकातिशयोक्ति बहुत दुर्बोध हो गई है, जैसे--
जौ लगि कालिंदी, होहि विरासी। पुनि सुरसरि होइ समुद परासी।
यह भी उसी दूती का वचन है। अभिप्राय यह कि जब तक तू काले केशोंवाली (अर्थात् युवती) है तबतक विलास कर ले फिर जब श्वेत केशोंवाली हो जायगी तब तो काल के मुँह में पड़ने के लिये जल्दी जल्दी बढ़ने लगेगी। जमुना की काली धारा सीधे समुद्र में नहीं गिरती है। जब वह श्वेत धारावालो गंगा के साथ मिलकर श्वेत गंगा ही हो जाती है तब समुद्र को ओर जाती है जहाँ जाकर उसका अलग अस्तित्व नहीं रह जाता। यह अतिशयोक्ति दुर्बोध हो गई है। दुर्योधता का कारण है अप्रसिद्धि। रूपकातिशयोक्ति में प्रसिद्ध उपमान ही लाए जाते हैं। अप्रसिद्ध और नए कल्पित उपमानों के रखने से तो पद्य पहेलो हो जायगा। उक्त पद्य में जायसी ने स्वतंत्रता यह दिखाई कि परंपरा से व्यवहृत प्रसिद्ध उपमान न लेकर स्वकल्पित अप्रसिद्ध उपमान लिए हैं, जिससे एक प्रकार को दुरूहता आ गई है। काले केशों के लिये कालिंदी नदी को और श्वेत केशों के लिये गंगा को उपमा प्रसिद्ध नहीं है। यह रूपकातिशयोक्ति अलंकार हो लोक पोटनेवालों के लिये है। जो नए उपमानो की उद्भावना करे वह इस अलकार की ओर जाय क्यों?
इसी प्रकार की गूढ़ और अर्थगर्भित योजना 'तद्गण अलंकार' को भी लीजिए। देवपाल की दुती बहुत से पकवान लाकर पद्मावती के सामने रखती है। वह उन्हें हाथों से भी न छूकर कहती है--