पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१०४

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प्रसार करने में जो कवि समर्थ हो वह धन्य है। शरीर पनपना आदि लाक्षणिक प्रयोग जो बोलचाल में आए हैं वे ऐसे ही कवियों की कृपा से प्राप्त हुए है।

सादृश्यमूलक अलंकारों में उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा का व्यवहार अधिक मिलता है। इनमें से हेतुत्प्रेक्षा जायसी को बहुत प्रिय थी। इसके सहारे उन्होंने अपनी कल्पना का विस्तार बहत दूर तक बढ़ाया है--कहीं कहीं तो सारी सृष्टि को अपने भाव के भीतर ले लिया है (दे० विरहवर्णन)। रूपवर्णन में कवियों को अलकार भरने काखब मौका मिलता है। जायसी का शिखनख वणन भायाधकतर परंपरानुगत ही है। इससे अलंकारों की भरमार उसमें और जगहों से अधिक देखी जाती है। सादृश्यमलक अलंकारों में वस्तुत्प्रेक्षा अधिक है काले केशों कशा के बीच माँग की शोभा देखिए---

कंचन रेख कसौटी कसी। जन घन महँ दामिनी परगसी।।
सुरुज किरन जनु गगन बिसेखी। जमना माँह सुरसती देखी॥

इसी प्रकार आँख की वरुनियाँ भी कुछ और ही जान पड़ती हैं---

बरुनी का वरनौं इमि बनी। साधे बान जान दुइ अनी॥
जुरी राम रावन के सेना। बीच समुद्र भए दुइ नैना॥

इस सादृश्य में उपमानों की परिमाणगत अधिकता यदि कुछ खटके तो इस बात का स्मरण कर लेना चाहिए कि जायसी का प्रेम केवल लौकिक नहीं है अतः उसका पालंबन भी अनंत सौंदर्य की ओर संकेत करनेवाला है।

इस संबंध में वस्तूत्प्रेक्षा का एक और उदाहरण देकर आगे चलता हूँ। पद्मिनी की कटि इतनी सूक्ष्म जान पड़ती है--

मानहुँ नाल खंड दुइ भए। दुहुँ बिच लंकतार रहि गए॥

ये तो वस्तुत्प्रेक्षा या स्वरूपोत्प्रेक्षा के उदाहरण हए। क्रियोत्प्रेक्षा के भी बहुत बढ़े चढ़े उदाहरण इस रूपवर्णन के भीतर मिलते हैं, जैसे--

अस वै नयन चक्र दुइ, भँवर समुद उलथाहि।
जनु जिउ घालिहिं डोल महँ, लेइ आवहि लेइ जाहिं।।

हेतृत्प्रेक्षा के कुछ उदाहरण विरहवर्णन आदि के अंतर्गत या चुके हैं। यह अलंकार उत्कर्ष की व्यंजना के लिये बड़ा शक्तिशाली होता है। लोक में कार्य और कारण एक साथ बहुत ही कम देखे जाते हैं। प्रायः कारण परोक्ष ही रहता है। अतः कोई रूप या क्रिया यदि अपने प्रकृत रूप में हमारे सामने रख दी गई ता वह उस प्रभाव का प्रमाणस्वरूप लगने लगती है जिसे कवि ख ब बढ़ाकर दिखाया चाहता है और हम इस बात की छानबीन में नहीं पड़ने जाते कि हेतू ठीक है या नहीं। इस अलंकार के दो एक उदाहरण देकर हम यह सूचित कर देना चाहते हैं कि जायसा का हतूत्प्रेक्षाएँ अधिकतर असिद्धविषया ही मिलती हैं। ललाट का वर्णन करता हुआ कवि कहता है--

सहस किरनि जो सुरुज दिखाई। देखि लिलार सोउ छपि जाई ॥