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सेवत लखन सिया रघुबीरहि। जिमि अविवेकी पुरुष सरीरहि॥

इस दृष्टांत में लक्ष्मण का सादृश्य जो अविवेकी पुरुष से किया गया है उससे सेवा का प्राधिक्य तो प्रकट होता है पर लक्ष्मण के प्रति प्रतिष्ठित भाव में व्याघात पड़ता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि लक्ष्मण का सादृश्य अविवेकी पुरुष के साथ कवि ने नहीं दिखाया है बल्कि लक्ष्मण के सेवाकर्म का सादृश्य अविवेकी के सेवाकर्म से दिखाया गया है। ठीक है, पर लक्ष्मण का कर्म श्लाघ्य है और अविवेकी का निंद्य, इससे ऐसे अप्रस्तुत कर्म को मेल में रखने से प्रस्तुत कर्मसंबंधिनी 'भावना में वाधा अवश्य पड़ती है। रसात्मक प्रसंगों में केवल किसी बात के आधिक्य या न्यूनता की हद से ही काम नहीं चलता। जो भावुक और रसज्ञ न होकर केवल अपनी दूर की पहुँच दिखाया चाहते हैं वे कभी कभी आधिक्य या न्यूनता की हद दिखाने में ही फंसकर भाव के प्रकृत स्वरूप को भूल जाते हैं। कोई आँखों के कोनों को कान तक पहुंचाता है, कोई नायिका की कटि को ब्रह्म को समान अगोचर और सूक्ष्म बताता है, 'कोई यार की कमर कहाँ है, किधर है' यही पता लगाने में रह जाता है। नायिका शृंगार का आलंबन होती है। उसके स्वरूप के संघटन में इस बात का ध्यान चाहिए कि उसकी रमणीयता बनी रहे। प्राचीन कवि जहाँ मृणाल की ओर संकेत करके सूक्ष्मता और सौंदर्य एक साथ दिखाते थे, वहाँ लोग या तो भिड़ की कमर सामने लाने लगे या कमर ही गायब करने लगे। चमत्कारवादी इसमें अदभत रस का ग्रानंद मानने लगे। पर सोचने की बात है कि नायिका 'अद्भुत' रस का आलंबन है या शृंगार रस का। शृंगार रस के आलंबन में 'अद्भुत' केवल सौंदर्य का विशेषण हो सकता है। 'अद्भुत सौंदर्य' हम दिखा सकते हैं परसौंदर्य को गायब नहीं कर सकते।

कहने की आवश्यकता नहीं कि ऊपर जो बात कही गई है वह ऐसी वस्तुओं के संबंध में कही गई है जिनका वर्णन कवि किसी भाव में मग्न होकर उसी भाव में मग्न करने के लिये, करता है--जैसे, नायिका का वर्णन, प्राकृतिक शोभा का वर्णन, वीर कर्म का वर्णन, इत्यादि। जहाँ वस्तुएँ ऐसी होती है कि उनके संबंध में अलग कोई वेगयुक्त भाव (जैसे, रति, भय, हर्ष, घृणा, श्रद्धा इत्यादि) नहीं होता, केवल उनके रूप, गण, क्रिया आदि का ही गोचर स्पटीकरण करना या अधिकता न्यनता की ही भावना तीव्र करना अपेक्षित होता है--उनके द्वारा किसी भाव की अनुभूति की वृद्धि करना नहीं-वहाँ आकृति, गुण आदि का निरूणप और आधिक्य या न्यनता का बोध करानेवाली सदश वस्तयों से ही प्रयोजन रहता है। हाथियों के डीलडौल, तलवार की धार, किसी कर्म की कठिनता, खाई की चौड़ाई इत्यादि के वर्णन से केवल इस प्रकार का सादृश्य अपेक्षित रहता है जैसे पहाड़ के समान हाथी, बाल की तरह धार; पहाड़ सा काम, नदी सी खाईं, इत्यादि।

जायसी ने सादृश्यमूलक अलंकारों का ही आश्रय अधिक लिया है। अतः उपर्युक्त विवेचन के अनुसार जब हम उनके अप्रस्तुतान्वय या सादृश्य विधान पर विचार करते हैं, तब देखते हैं कि रसात्मक प्रसंगों में अधिकांश भाव के अनुरूप ही अनरंजनकारी अप्रस्तुत वस्तुओं की योजना हुई है। पर साथ ही यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि जायसी के वर्णन अधिकतर परंपरानुगत ही हैं इससे