पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/९९

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100 / जाति क्यों नहीं जाती ? ब्राह्मणविरोध की लफ्फाजी बनकर रह गया। असलियत में वह ब्राह्मणवादविरोधी नहीं रह गया था। यह आंदोलन अब मुख्यतः नये समाज में, निचले तबकों में पैदा हो रहे नये बुद्धिजीवी वर्ग को भी स्थान दिलाने का आंदोलन भर बनकर रह गया था। इसका नतीजा यह हुआ कि वे अपने ब्राह्मणविरोधी संघर्ष के लिए ब्रिटिश शासकों पर निर्भर हो गये। सच तो यह है कि इसकी वजह से ब्राह्मणविरोधी नेतृत्व ने तीसरे दशक में उठी साम्राज्यवादविरोध की पहली लहर का विरोध किया था । नतीजा यह हुआ कि जब एक ओर देश भर के अनेक शहरों और गांवों के हजारों लोग जलियांवाला बाग के हत्याकांड के विरुद्ध रोष की आग में जल रहे थे और जब बंबई का मजदूर वर्ग वेल्स के राजकुमार की यात्रा के विरुद्ध जुझारू प्रदर्शन कर रहा था, तब दूसरी ओर, कोल्हापुर के महाराजा पुणे में ब्रिटिश युवराज के स्वागत के लिए बड़ी संख्या में किसानों को इकट्ठा करके लाये थे जिसे शिवाजी- स्मारक का शिलान्यास करने का सम्मान दिया गया था । जाहिर है कि साम्राज्यवादीविरोधी संघर्ष से यह अलगाव बहुत लंबे अरसे तक कायम रहनेवाला नहीं था। इस आंदोलन में इतनी जीवन शक्ति तो थी कि वह अपने उस पतन से उबर सके। इस आंदोलन पर तो यह बात इसलिए खास तौर पर लागू होती थी क्योंकि वह किसानों से जुड़ा हुआ आंदोलन था और तीसरे दशक का किसान अब पहलेवाला किसान नहीं रह गया था। 1930 तक जब कांग्रेस का नया नया आंदोलन गांवों तक पहुंचना शुरू हुआ था ब्राह्मणविरोधी आंदोलन के प्रगतिशील तथा जुझारू तत्व राष्ट्रीय आंदोलन से अपने इस अलगाव से उबर चुके थे । वे इस राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गये थे और पुराना वाला आंदोलन कांग्रेस में ही मिल गया था। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजों के रहमोकरम पर निर्भर रहने या राष्ट्रीय आंदोलन का विरोध करने से यह स्थिति कहीं बेहतर थी । लेकिन यह जरूर है कि ज्योतिबा ने जो समग्र विद्रोह छेड़ा था उसको आगे बढ़ाने के अनुरूप यह सिलसिला नहीं था। ऊंच-नीच पर आधारित हिंदू व्यवस्था के पूरी तरह खात्मे के उनके कार्यक्रम को अमल में लाने का तो एक ही तरीका था कि इस कार्यक्रम को सामंती तथा अर्द्धसामंती संबंधों के खात्मे और जनवादी जनता के हाथों में राजनैतिक सत्ता देने के कार्यक्रम से जोड़ा जाता, संक्षेप में, इसे जनवादी क्रांति को सफल बनाने के कार्यक्रम का अंग बनाया जाता । न तो कांग्रेस का समझौतापरस्त नेतृत्व ही यह कर सकता था और न ब्राह्मणविरोधी आंदोलन का नया देशभक्त नेतृत्व। आखिर दोनों का वर्ग चरित्र तो एक ही था। इसका नतीजा यही