पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/९८

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जाति, वर्ग और संपत्ति के संबंध / 99 साधनों पर उच्च जातियों के इजारे के खिलाफ संघर्ष चलाकर ही इस कार्यक्रम को सफल बनाया जा सकता है। इसलिए यह आकस्मिक नहीं था कि बाद के गैरब्राह्मण नेताओं में इस कार्यक्रम के प्रति उतना उत्साह नहीं रह गया। इसकी वजह यही थी कि यहां से आगे बढ़ना तभी संभव था जबकि गांवों में प्रभुत्वशाली जातियों तथा वर्गों की जमीन पर इजारेदारी पर हमला बोला जाय और इन वर्गों में गैर-ब्राह्मण भी आते थे। विचारधारात्मक दृष्टि से ज्योतिबा का कार्यक्रम हिंदू समाज के हर क्षेत्र में जनतांत्रिक मूल्यों की दृढ़ता से लागू करने का कार्यक्रम था। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि यह कार्यक्रम सामंती भूमि संबंधों पर आधारित प्राचीन सामंती ऊपरी ढांचे के खिलाफ समझौताहीन हमला बोल रहा था। इस लिहाज से ऊंची जातियों के बुद्धिजीवियों और ज्योतिबा के बीच भारी अंतर था। जहां ऊंची जातियों के बुद्धिजीवी ब्रिटिश शासन पर हमला करने के साथ-साथ देशी प्रतिक्रियावाद, उसके सामंती आधार और ऊपरी ढांचे से गठजोड़ कर रहे थे। वहीं ज्योतिबा ने इस ऊपरी ढांचे के विरुद्ध समझौताविहीन रुख अपनाया और उसे पूरी तरह नेस्तनाबूद करने की मांग की । यदि परिस्थितियां थोड़ी और अनुकूल रही होतीं तो संभव था कि उनका यह संघर्ष उन्हें बुनियादी भूमि संबंधों को चुनौती देने के स्तर तक पहुंचा देता । ज्योतिबा की मृत्यु के बाद इस आंदोलन का सर्वव्यापी चरित्र कायम नहीं रह सका। इस सचाई को इस तथ्य से ही समझा जा सकता है कि इस आंदोलन का नेतृत्व बाद में कोल्हापुर के महाराजा के हाथ में आ गया था जो कि एक सामंती राजा थे। उन्होंने मांग की कि हमें भी क्षत्रिय माना जाय। यह मांग इस आंदोलन के नये समझौतावादी दौर की ही सूचक थी । ज्योतिबा की मृत्यु 1896 में हुई और उसके दस साल के अंदर इस नये नेता ने मराठों के वेदोक्त अधिकारों (क्षत्रिय के रूप में मान्यता) के लिए संघर्ष शुरू कर दिया था। बाद के बीस सालों के अंदर- अंदर यह आंदोलन अपना वास्तविक चरित्र खोकर अपने से ठीक उलट स्वरूप धारण कर चुका था, अब सिर्फ ब्राह्मणों का स्थान क्षत्रियों को लेना बाकी था। बाद में इस आंदोलन में एक नया समझौतावाद पनपने लगा जिसके कारण यह आंदोलन ऊंच-नीच पर आधारित हिंदू व्यवस्था में अपने समुदाय, खास तौर पर मराठों के लिए बेहतर स्थान पाने के लिए और आगे चलकर ब्रिटिश शासन में उनके लिए पद तथा विशेष कृपा प्राप्त करने के चक्कर में ही फंस गया।' उक्त आंदोलन के नजरिये में आये इस परिवर्तन के साथ ब्राह्मणविरोध महज