पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/९७

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98 / जाति क्यों नहीं जाती ? ब्राह्मणों का प्रभुत्व था और वे गैरब्राह्मणों को अपने से नीचा समझते थे। आखिरी बात यह थी कि ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत जो बुद्धिजीवी वर्ग पैदा हो भी रहा था, उसका बड़ा हिस्सा उच्च ब्राह्मण समुदाय से ही आता था। अफसरों, प्रोफेसरों, छोटे अधिकारियों, लेखकों, संपादकों के प्रायः सभी पदों पर इन्हीं का कब्जा था। इस स्थिति ने पुराने दिनों के लौटने का डर पैदा कर दिया था। ज्योतिबा ने अपने जायज आक्रोश की धार निश्चय ही ब्राह्मणों के खिलाफ रखी। लेकिन उनका नजरिया सांप्रदायिक नजरिया न होकर शुरू से आखिर तक जनवादी रवैया था । इसीलिए वे ब्राह्मणवाद के पक्के विरोधी थे । ज्योतिबा और उनके विरोधियों के बीच समझौते की कोई गुंजाइश ही नहीं थी क्योंकि उनका संघर्ष असमानता पर आधारित हिंदू व्यवस्था में किसी एक समुदाय को जगह दिलाने तक सीमित नहीं था। ज्योतिबा खुद भी नये बुद्धिजीवी वर्ग का हिस्सा थे। ऐसा नहीं था कि बुद्धिजीवी वर्ग का उभार तथा जनवादी रुझान सिर्फ ऊँची जातियों तक ही सीमित रहा हो। समाज के निचले हिस्सों में भी उफान आ रहा था । ज्योतिबा इसी लोकधारा का प्रतिनिधित्व करते थे। यह धारा लोकधारा इसलिए थी क्योंकि इसका सीधा संबंध हिंदू समाज के निचले तबके से, यानी किंसानों से था। उनकी राजनैतिक समझ वही थी जो बुद्धिजीवी वर्ग के दूसरे हिस्सों की थी। हिंदू सामाजिक ढांचे के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष के मामले में ही बुद्धिजीवी वर्ग के बाकी तबकों से उनके तीव्र मतभेद थे। उन्होंने अछूतों के हितों की रहनुमाई की, ब्राह्मणों के प्रभुत्व पर हमला किया, जातियों की उत्पत्ति का और आर्य धारणा का भंडाफोड़ किया, उन्होंने सबकी पूर्ण समानता की मांग की, मुसलमानों तथा ईसाइयों के प्रति समानता के बर्ताव की मांग रखी, निचले से निचले तबके के लिए शिक्षा की मांग की और पुरुषों तथा स्त्रियों के बीच समानता पर जोर दिया; यानी, कुल मिलाकर उन्होंने असमानता पर आधारित पुरानी व्यवस्था के खिलाफ खुले युद्ध की घोषणा कर दी । समानता और एकता का उनका यह कार्यक्रम निश्चय ही लखनऊ में हुए हिंदू- मुस्लिम समझौते या गांधीवादी - राष्ट्रीय एकता कार्यक्रम के मुकाबले कहीं ज्यादा प्रगतिशील था। हां ! यह जरूर था कि इस कार्यक्रम को शुरू करने वाले को भी इसका पता नहीं था कि इस तरह के कार्यक्रम को सामंती भूमि संबंधों और औपनिवेशिक शासन को क्रांतिकारी तरीके से खत्म किये बिना पूरा नहीं किया जा सकता। उनका खयाल था कि ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा तथा जात-पांत विरोधी चेतना के प्रसार और ब्राह्मणवादी प्रभुत्व तथा ब्रिटिश शासन के अंतर्गत उन्नति करने के