पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/९३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

94 / जाति क्यों नहीं जाती ? अंदर थोथी आशाएं जगाने के मकसद से कुछ रियायतें देने के लिए प्रशासनिक तंत्र का इस्तेमाल अब नया शासक वर्ग भी कर रहा है। संविधान ने घोषणा कर दी है कि चाहे कोई किसी भी जाति का क्यों न हो कानून की नजरों में वह सबके समान है । संसद ने छुआछूत को दंडनीय अपराध घोषित कर दिया है। लेकिन भूमि-संबंधों का बुनियादी ढांचा–जिसमें यदि बड़ा बदलाव होता तो जाति व्यवस्था और छुआछूत को भारी धक्का लगा होता - अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। इसलिए, नये शासक भी ब्रिटिश शासकों द्वारा अपनाये गये हथियारों का ही इस्तेमाल करते हैं जैसे नौकरियों में आरक्षण, कालेजों में दाखिलों में आरक्षण, सरकारी नौकरियों में उच्च पदों के लिए आरक्षण आदि । पूंजीवादी - सामंती सरकारों के भूमि सुधार कानूनों का मकसद यही था कि पुराने संबंधों को उनकी नयी तात्कालिक जरूरतों के अनुसार ढाला जाय । कानूनी तौर पर तो जमींदारी खत्म हो गयी, लेकिन पुराना बुनियादी ढांचा और पुरानी असमानता बरकरार रही। जो कानून बनाये गये, वे भी लागू नहीं किये गये, भूमि सीमा कानून एक मजाक बनकर रह गया, कांग्रेस द्वारा पास किये गये कानूनों के बाद भूमि का केंद्रीकरण लगातार बढ़ता रहा है । गोया, एक बार फिर वही स्थिति है, वर्गीय शासन और प्रशासन की पूरी ताकत उस आर्थिक ढांचे को बरकरार रखने में लगी हुई है जो जातियों और छुआछूत को जिंदा रखता है। राजसत्ता पर काबिज पूंजीपति-जमींदार गठजोड़, दावे तो लंबे-चौड़े कर सकता है मगर इन दावों के अलावा और कुछ भी नहीं कर सकता । बहु प्रचारित 20 सूत्री कार्यक्रम की असफलता इसी सचाई को साबित करती है । इस स्थिति में आम जनता का खुद इस तरह के रीति-रिवाजों का शिकार बना रहना और शोषित जातियों के आधार पर बंटा रहना स्वाभाविक है। आज उनके अपने बीच रोजाना जो नये आम रिश्ते पैदा हो रहे हैं उनको भूल रहे हैं । इसका अर्थ सिर्फ यही है कि सर्वहारा का जो एक नया वर्ग बन रहा है पूराने भूमि-संबंधों में बदलाव न होने के कारण उसके रूप ग्रहण की प्रक्रिया में देरी हो रही है और इसीलिए, ऊंच-नीच के भेद पर आधारित पुरानी विचारधारा की जकड़ आज भी बनी हुई है। आजादी के बाद से प्रभुत्वशाली वर्गों का हित चाहने वाले लोग जातिगत असमानताओं, छुआछूत और सांप्रदायिक नजरिये को बरकरार रखने की दिशा में ही काम करते रहे हैं।