पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/८९

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90 / जाति क्यों नहीं जाती ? करके, जमीन व रोजगार मुहैया कराये जायं तथा सामाजिक समानता की स्थिति पैदा की जाय। जनवादी ताकतों तथा लोगों को सरकार पर यह दबाव डालना चाहिए. उसे मजबूर करना चाहिए कि वह ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों, हरिजनों तथा पिछड़े वर्गों के खिलाफ और ग्रामीण शोषकों के पक्ष में सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करने की अपनी वर्तमान नीति को तो छोड़े ही, इसके साथ ही साथ निहित स्वार्थों के खिलाफ उस मशीनरी का और अपनी पूरी शक्ति का इस्तेमाल करे और देश के ग्रामीण क्षेत्रों से बुनियादी सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन करे इससे स्पष्ट हो जाता है कि कम्युनिस्टों ने यह कभी नहीं कहा कि जाति, छुआछूत या सांप्रदायिकता का नजरिया दकियानूसी भूमि व्यवस्था और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रांतिकारी संघर्ष चलाये बिना अपने आप खत्म हो जायेगा। उन्होंने कभी नहीं कहा कि ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों के वर्ग संघर्ष से अलग-थलग होकर जातिव्यवस्था की आलोचना भर करने से उसके खिलाफ संघर्ष चलाया जा सकता है। वे जानते थे कि यह वर्ग-संघर्ष ऐसी जनता का संघर्ष था जो अभी जातिवादी पूर्वग्रहों से मुक्त नहीं हुई थी और जिसे शोषितों के रूप में अपनी वास्तविक सत्ता को पहचान कर संघर्ष के दौर में एकताबद्ध होना था। यह वास्तविक और दृढ़ एकता उस क्रांतिकारी संघर्ष की प्रक्रिया में ही हासिल की जानी थी जिसमें बिना भेदभाव सभी की शिरकत होनी थी । कम्युनिस्टों ने इस बात पर भी गौर किया था कि जातियों का तेजी के साथ बिखराव हो रहा है। हर जाति के भीतर संपत्तिहीनों के बीच विभाजन हो रहा है और बढ़ती गरीबी सभी जातियों के लोगों पर प्रभाव डाल रही है तथा कृषि में लगी लगभग गति गरीबी बढ़ने की इस प्रक्रिया की शिकार हुई है। इस तरह सभी जातियों के निचले तबकों के बीच एक नयी एकता पैदा हो रही थी । यही वह एकता थी जिसे समान हितों के संघर्षों के दौरान उभारने और मजबूत बनाने की जरूरत थी । इसलिए, यह जरूरी था कि जातिगत असमानताओं के खिलाफ लड़ते हुए इस आम एकता को अहमियत दी जाय। यहां जाति की जगह वर्ग को बैठाने या फिर जातिगत भेदभावों के अस्तित्व से इनकार करने और सिर्फ वर्गीय भेदों को ही मानने का सवाल नहीं है। सवाल सिर्फ उस ठोस वास्तविकता को पहचानने का है जिसमें जातिगत भेदभावों के अस्तित्व के साथ साथ शोषित वर्ग के रूप ग्रहण करने की प्रक्रिया भी घटित हो रही थी यानी शोषितों के एक वर्ग के बनने की ही यह एक प्रक्रिया थी। जो लोग इस दुहरी प्रक्रिया को नहीं समझ सके वे सुधारवाद का शिकार हुए।