पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/८४

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जाति, वर्ग और संपत्ति के संबंध / 85 इसने जो विरोध किया, वह कोई जातिवादी गठजोड़ नहीं बल्कि इसी वर्गीय गठजोड़ का नतीजा था। वे किसानों पर लगे सरकारी करों तथा भूमिकर और इसी तरह अन्य सरकारी कदमों का विरोध करने के लिए तो तैयार थे, मगर अपने कार्यक्रम में कृषि-संबंधों का उल्लेख करने से वे बाद तक कतराते रहे। हालांकि राष्ट्रीय आंदोलन के बाद के नेताओं के लिए ठीक यही रवैया अपनाना तो संभव न हो सका और उन्होंने जाति संबंधी असंतोष और भूमि-संबंधों दोनों का ही चालाकी से फायदा उठाया, मगर, बुनियादी तौर पर उनका रवैया वही पुराना रहा। 4. 1920 में कांग्रेस ने खुले तौर पर बड़े जमींदारों के प्रति अपनी पक्षधरता दिखायी। उसने जमींदारों को किसानों द्वारा कमरतोड़ लगानों की अदायगी न करने पर उन्हें फटकारा। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी अभियान को वापस लेने से संबंधित 12 फरवरी, 1922 के बारदोली फैसले में यह भी कहा गया था कि 'वर्किंग कमेटी कांग्रेस कार्यकर्ताओं और संगठनों को सलाह देती है कि वे रैयतों को समझा दें कि जमींदारों का लगान रोकना कांग्रेस के प्रस्तावों के खिलाफ है और यह कार्रवाई देश के उच्चतर हितों के तईं घातक है । वर्किंग कमेटी जमींदारों को आश्वस्त करती है कि कांग्रेस आंदोलन उनके वैध हितों पर हमला बोलने के कतई पक्ष में नहीं है। कमेटी का फैसला है कि अगर रैयतों को कोई शिकायत हो भी तो उनका हल आपसी बातचीत और पंच फैसले के जरिये ही निकाला जाय।" कांग्रेस का यह कथन उस दौर का था जिसमें संयुक्त प्रांत और दूसरे हिस्सों में जमींदारों के खिलाफ किसान जनता के बड़े हिस्सों ने आंदोलन शुरू कर दिये थे। बाद के सालों में कांग्रेसी नेताओं को किसान जनता के समर्थन पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर रहना पड़ा। इसके बावजूद इतने भोंड़े तरीके से जमींदारों के हितों की रक्षा करने का उनका रवैया बदला नहीं। कांग्रेस ने काश्तकारों आदि को न्याय दिलाने की बात करना तो शुरू कर दिया, लेकिन कृषि क्रांति से उसका विरोध ज्यों का त्यों बना रहा और जमींदारों से उनका गठबंधन बरकरार रहा। यह आकस्मिक ही नहीं था कि गांधी ने देशी रजवाड़ों के भारत को 'भारतीय भारत' बताया और उनकी तारीफों के पुल बांधे। कांग्रेस कई सालों तक देशी रजवाड़ों में व्यापक आंदोलनों का विरोध करती रही । कृषि-क्रांति का भय और देशी दकियानूसी ताकतों के साथ उनका गठजोड़, कोई संयोग नहीं था। भारत के कमजोर औद्योगिक पूंजीपति वर्ग में साम्राज्यवाद की चुनौती का मुकाबला करने का साहस नहीं था। इसके लिए उसे पुराने और स्थापित संपत्तिशाली वर्गों का सहारा लेना जरूरी था। बुद्धिजीवी वर्ग का एक हिस्से का