पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/८१

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82 / जाति क्यों नहीं जाती ? सामाजिक स्थिति को प्राकृतिक नियम का रूप देते थे, अमानवीय प्रकृति- पूजा इसी का परिणाम थी। इस पतन को इस तथ्य में देखा जा सकता है कि प्रकृति का स्वामी मनुष्य, बंदर 'हनुमान' और गाय-'सबला' की पूजा करने के भाव से इन्हें साष्टांग प्रणाम करता है। भारतीय समाज को बदलना औपनिवेशिक शासकों के हित में नहीं पड़ता था। पुराने समाज, उसके स्तर विभाजन, उसकी अर्थव्यवस्था के बदलाव की प्रक्रिया, धीमी और कष्टप्रद प्रक्रिया थी । फलतः जाति प्रथा को संरक्षण देनेवाले पुराने सामंती भूमि-संबंधों पर न्यूनतम आधुनिक पूंजीवादी संबंध थोप दिये गये। ब्रिटिश उपनिवेशी शासन की जरूरत थी कि स्थानीय शक्तिशाली पूंजीपति वर्ग का उदय न हो । यह शासन भारतीय जनता के पिछड़ेपन के आधार पर ही उसका शोषण करना चाहता था। इसका अर्थ यही था कि जहां तक संभव हो ग्रामीण भूमि-संबंधों को ज्यों का त्यों सुरक्षित रखा जाय। उनमें कोई फेरबदल किया भी जाय तो सिर्फ उतना ही जितना अपने हितों को पूरा करने के लिए जरूरी हो । इस प्रकार दो परस्परविरोधी प्रक्रियाएं जारी थीं। एक ओर, आधुनिक संबंधों की शुरुआत हो रही थी- रेलें, संचार - साधन, टेलीग्राफ, वर्कशाप तथा कुछ फैक्टरियां, बढ़ता हुआ माल विनिमय, निर्यात तथा आयात जैसी नयी चीजें पुराने ढांचे और उससे जुड़ी हुई जाति -प्रथा को कमजोर करने की प्रवृत्ति को बढ़ा रही थीं, जबकि दूसरी ओर, पुराने भूमि-संबंधों को बनाये रखने में औपनिवेशिक शासकों का खास हित था । सामाजिक और आर्थिक मदद के लिए सामंतों पर निर्भर करने का अर्थ था जाति प्रथा को समर्थन देना । पुनरुत्थानवाद और समझौता हिंदू उच्च जातियों से आनेवाले, उभरते हुए पूंजीवादी बुद्धिजीवी भी जो राष्ट्रीय आंदोलन के नेता थे, जाति-प्रथा के साथ समझौता करना चाहते थे। हम सौ साल पहले की पिछड़ी हुई आर्थिक अवस्था की कल्पना कर सकते हैं। बुद्धिजीवी वर्ग अभी साम्राज्यवादविरोधी संघर्ष का 'क-ख-ग' ही सीख रहा था। देशी औद्योगिक पूंजीपति वर्ग के समर्थन का मजबूत आधार अभी उसे प्राप्त नहीं था । दलित से यह वर्ग अलग-थलग पड़ा था और अपने तत्कालीन अनुयायियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने से बेहद डरता था । इसके अलावा, अंग्रेजों के खिलाफ अपने संघर्ष में भारतीय राष्ट्रवादियों ने लोकतंत्र और स्वाधीनता के अपने दावे के लिए भारत के अतीत से शक्ति प्राप्त की। इसी वजह से वे पुनरुत्थानवादी सोच और