पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

जोतिबा फुले

जोतिबा फुले आधुनिक भारत में क्रांतिकारी समाज परिवर्तन के आंदोलन के मूल प्रवर्तक हैं। जोतिबा फुले का सम्पूर्ण साहित्य मानव समाज को नयी प्रेरणा देने वाला व जातिवादी भारतीय समाज में समानता, भाईचारा, सामाजिक न्याय और स्वतंत्रता की चेतना जगाने वाला साहित्य है।

जोतिबा फुले ने पण्डा-पुरोहित को धार्मिक शोषक वर्ग कहा, नारी की गुलामी, शूद्रादि-अतिशूद्रों तथा किसानों के मुद्दों को उठाया। गांव के मुखिया, जमींदार, ब्राह्मण, बनिया, पटवारी आदि किसानों की अज्ञानता का लाभ उठाकर किस प्रकार उनका शोषण करते हैं इसका गहराई से विश्लेषण किया। राजाराम मोहनराय, स्वामी दयानन्द, जांभेकर, भंडारकर आदि समाज सुधारक व्यवस्था परिवर्तन नहीं चाहते थे बल्कि हिन्दू धर्म व समाज में कुछ सुधार की बात करते थे, जिसके फलस्वरूप इनके आंदोलन की पहुंच किसानों, दलितों, आदिवासियों तक नहीं हुई, वह शहरी विशेषकर उच्चवर्गों के लोगों तक ही सीमित रहा, जबकि जोतिबा फुले का आंदोलन समाज के दलित वंचितों तक गया।

यहां जोतिबा फुले की - सार्वजनिक सत्यधर्म, गुलामगिरी, किसान का कोड़ा नामक रचनाओं से कुछ अंश दिए जा रहे हैं। कहना न होगा कि इनसे आज के जातिगत समाज को समझने में बहुत मदद मिलती है।

धर्म-पुस्तक


बलवंतराव हरि साकवलकर: इस प्रकार क्या किसी भी धर्म-पुस्तक में सभी जीव-प्राणियों को सुख देने के संदर्भ में सत्य नहीं है ?

जोतीराव गोविंदराव फुले:इस धरातल पर मानव समाज ने जितनी धर्म-किताबें लिखी हैं, उनमें से किसी भी ग्रंथ में प्रारंभ से अंत तक समान सार्वजनिक सत्य नहीं है; क्योंकि हर धर्म-किताब में कुछ लोगों ने उस काल की स्थिति के अनुरूप मूर्खता की है। वे तमाम धर्म सभी मानव प्राणियों को समान रूप से हितकारी नहीं थे। स्वाभाविकता से उसमें कई समूह बन गए और वे एक-दूसरे की मन से घृणा और नफरत करने लगे ।

दूसरी बात यह है कि यदि निर्माता हम सभी मनुष्यों का निर्माणकर्ता है, तो सभी मानव प्राणियों में हर व्यक्ति को सभी मानवी अधिकारों का उचित उपभोग करने का अवसर प्राप्त होना चाहिए लेकिन ऐसा होता नहीं दिखाई दे