पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/७९

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बी.टी. रणदिवे ( 1904-1990) बी. टी. रणदिवे भारत के वामपंथी आंदोलन के अग्रणी नेता, देश के मजदूर वर्ग के संगठन, सी. आई.टी.यू. (सीटू) के अध्यक्ष और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के पोलिट ब्यूरो के सदस्य थे। बीटी रणदिवे ने देश की राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक समस्याओं पर लगातार लिखा है, जाति को भारतीय जनता की एकता में बाधक मानते थे। उनका मानना था कि “जन संघर्षों के नेताओं को जातिवाद और अस्पृश्यता से उत्पन्न फूटपरस्त चुनौती को शिकस्त देनी है। इसके लिए उन्हें संघर्षरत मेहनतकशों के दिलों में जातिवाद के खिलाफ एक जबर्दस्त जज्बा पैदा करना होगा। और उनमें सर्वहारा की एकता और एकजुटता की भावना का संचार करना होगा। जाति प्रथा और अस्पृश्यता के खिलाफ जबरदस्त विचारधारात्मक प्रचार के जरिये यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।.... एकजुट मेहनतकशों की शक्तिशाली वाहिनी निर्णायक रूप से कृषि क्रांति के लिए जूझ सकेगी और जातिगत भेदभाव तथा अस्पृश्यों की भू-दासता के आधार को ध्वस्त कर सकेगी। केवल तभी जनवादी ताकतें उत्पादन के साधनों के समाजीकरण के आधार पर राजसत्ता पर अधिकार तथा द्रुत औद्योगीकरण राह दमदार कर सकेंगी और जातिहीन व वर्गहीन समाज की स्थापना कर सकेंगी।" बी. टी. आर. का प्रस्तुत लेख जाति और वर्ग के सामाजिक व आर्थिक आधार से जुड़े सवालों पर विचार करता है। कृषि क्रांति द्वारा भूमि के संबंधों में परिवर्तन ही जातिवाद के रोग का सही उपचार है। जाति, वर्ग और संपत्ति के संबंध जाति व्यवस्था आज भी कायम है, उससे जुड़ी हुई धारणाएं अभी तक बनी हुई हैं, आज भी उसके खिलाफ संघर्ष चल रहा है। इस सारी प्रक्रिया को हम तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि उसे 19वीं और 20वीं शताब्दी की मुख्य राजनैतिक और आर्थिक घटनाओं के संदर्भ में नहीं देखते। साम्राज्यवादविरोधी राष्ट्रवादी चेतना का उभार, साम्राज्यवादविरोधी संघर्ष का उभार और इसके साथ-साथ जारी मजदूरों तथा किसानों के संघर्ष, इस दौर की प्रमुख घटनाएं थीं जिनके कारण अंग्रेजों को भारत से जाना पड़ा।