पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/७१

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72 / जाति क्यों नहीं जाती ? समझने की मूर्खता का परित्याग करना चाहिए। पर, इसके साथ ही, किसी भी तर्क द्वारा हम यह नहीं समझ सकते कि अस्पृश्यता-निवारण-आंदोलन में मंदिर प्रवेश को एक अनिवार्य स्थान क्यों नहीं दिया जा रहा है। समय की जैसी प्रगति है, इन मंदिरों की इस समय जैसी दशा है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ेगा कि हमारे हिन्दू-मंदिर भोग और प्रसाद, पुरोहित और पण्डे, ईश्वर के नाम पर व्यभिचार तथा दुराचार करनेवाले स्वार्थी और लोलुप- दर्शन करने जानेवालों से यह पहला प्रश्न करनेवाले कि पैसा चढ़ाओ - पामरों के अड्डे मात्र हैं। मन भर दर्शन नहीं करने पाइयेगा कि पुजारी जी पैसा चढ़ाओ की रट लगा देंगे। जी - भर भगवान के रूप का ध्यान भी न कर पाइयेगा कि चार-पाँच आदमी जबर्दस्ती आपके सर में चन्दन- सिन्दूर - रोली रगड़ने लगेंगे और पैसा माँगते-माँगते आपकी टेंट भी टटोलना शुरू कर देंगे। हमने भगवान को मनौती से, घूस से, पैसे से, दक्षिणा से प्रसन्न होनेवाला स्वार्थी बना रखा है। पग-पग पर हम पैसा देकर मुक्ति, नजात तथा स्वाधीनता खरीदना चाहते हैं। यह हमारा धर्म है, भक्ति है, अनुराग है। ऐसी दशा में मंदिरों की इतनी महत्ता व्यर्थ की है । हम मूर्ति पूजा के विरोधी नहीं, टका-पूजा के शत्रु हैं। हरिजनों के मंदिर - प्रवेश के शत्रु अधिकांशतः वे लोग हैं, जो उनकी दरिद्रता को उपहास की, मजाक की वस्तु समझते हैं, जो यह जानते हैं कि इन दरिद्रों के मंदिर जाने न जाने से विशेष लाभ या हानि नहीं होती है। महात्माजी के उपवास से देश में हरिजन आन्दोलन की बाढ़ सी आ गयी है पर हरिजन सेवा का कार्य अवश्य बढ़ गया है। कार्यकर्ता वही पुराने हैं और हमें खेद के साथ लिखना पड़ता है कि महात्माजी के व्रत के दिनों में भी हरिजनों के लिए मंदिरों का द्वार खुलने की संख्या नगण्य - सी है । धर्म के ठीकेदार, भिक्षावृत्ति से जीनेवाले, क्षेत्र में भोजनकर, मुफ्त का माल मारकर, दुराचार तथा अनाचार से पेट की रोटी चलाकर, आडम्बर, पाखण्ड, स्व तथा पैसे की पूजा करनेवाले क्या अब भी सचेत न होंगे? बहिष्कार बड़ी भयंकर, बड़ी कठोर, बड़ी भयावह वस्तु है। इसका सामना करना साधारण बात नहीं है । है खीझकर सुधारक- समुदाय अब बहिष्कार की बात सोच रहा है। अतः हम मंदिरों के संचालकों से, यदि उनमें असली धार्मिकता अवशिष्ट है, उस धार्मिकता से, नेकनीयती तथा सच्चाई के नाते यह अनुरोध करते हैं कि अब दम्भ छोड़ दें और समय के साथ चलना सीखें। देश को भावी धार्मिक उत्क्रान्ति से बचा लें, अन्यथा अनर्थ हो जाने की सम्भावना है। 29 मई, 1933