पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/७०

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जाति प्रथा पर विचार / 71 वह किसी के सामने सिर नहीं झुका सकते। अब्राह्मण चाहे अस्सी साल का बूढ़ा ही क्यों न हो, उसका धर्म है कि तिवारी जी को दंडवत् करे, उनके चरण छुए, नहीं तिवारी जी अपना अपमान समझेंगे। यह दंडवत् की समस्या भी आयु के आधार पर, या अन्य किसी आधार पर हल करनी होगी। उसका साम्प्रदायिक आधार नष्ट करना होगा। जब पूज्य गांधी जी इस भेदभाव को मिटाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर रहे हैं, तो क्या हमारा धर्म नहीं है कि हम भी इस अहंकारमय मनोवृत्ति का परित्याग करें? अगर कोई बूढ़ा हरिजन है, तो उसे हमारे सम्मान का पात्र होना चाहिए। अबे-तबे करके किसी को पुकारना उसका अपमान करना है। मूर्खों से तो नहीं, पर जो पढ़े-लिखे हैं उनसे यह आशा की जाती है कि हरिजनों के साथ वे शिष्टता का व्यवहार करें। बड़प्पन दूसरों को नीच समझने में नहीं, सज्जनता और शिष्टता में है। हमें इन छोटे-छोटे भेद-पोषक साधनों का तिरस्कार करना होगा, उन्हें उस अग्निकुण्ड में डालना होगा, जो महात्मा गांधी ने अपने तेज से प्रज्ज्वलित किया है। एक दिन झाड़ू हाथ में लेकर सड़कों पर तमाशा कर देने से यह अहंकार न मिटेगा, जो हरिजनों के अछूतपन का मुख्य कारण है। इसकी गहरी जड़ों को खोदकर समाज से निकालना होगा। हमारी ईश्वर से यही दीन प्रार्थना है कि भारत के प्राण गांधी के इस तप को सफल कीजिए और हमें सामर्थ्य दीजिए कि हम सच्चे मन से उनके इस तप को सफल बनाने और उनके द्वारा अपने को अहंकार की बेड़ियों से मुक्त करने में कृतकार्य हों । - 15 मई 1933 मंदिर प्रवेश और हरिजन महात्माजी के व्रत तथा तप का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है, कि हरिजनों को मंदिर प्रवेश का अधिकार एक प्रकार से शून्य के बराबर मिला है। मंदिरवाले इस महादेश में, कुछ मुट्टी भर और केवल साधारण मंदिर ही ऐसे हैं, जहां वे दर्शननार्थ जा सकते हैं। हम स्वयं किसी भी तर्क द्वारा यह बात समझ नहीं सकते कि हाड़-मांस की देहवाला, हिन्दू धर्म पर अभिमान करनेवाला कोई हरिजन काशी विश्वनाथ या किसी वैसे ही पवित्र मंदिर में क्यों नहीं प्रवेश पा सकता, जबकि स्थान-स्थान पर मल-मूत्र विसर्जन करनेवाला सांड़ मंदिर में दर्शनार्थियों पर सींग चलाता हुआ स्वच्छन्दता पूर्वक घूम सकता है। इस प्रकार की हठधर्मी का अब युग नहीं है और उच्च वर्णवालों को ईश्वर को भी अपनी 'स्त्री के समान अपनी ही वस्तु'