पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/६९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

70 / जाति क्यों नहीं जाती ? है कि वह अपने को चतुर्वेदी कह सके। कोई आदमी कुरान कण्ठ करके हाफ़िज हो सकता है, लेकिन यहां जो वेदों के ज्ञाता हैं, वे चतुर्वेदी नहीं कहे जा सकते । चतुर्वेदी तो वे हैं, जिन्होंने वेदों के दर्शन भी नहीं किये। यह और कुछ नहीं, अपनी कुलीनता का ढिंढोरा पीटना है, अपने अहंकार का बिगुल बजाना है। हम अपने को त्रिवेदी लिखकर मानों गला फाड़कर चिल्लाते हैं, कि "हम और सब प्राणियों से ऊंचे हैं, हमें दण्डवत् करो, हमारा चरण-रज माथे पर लगाओ।" हम इतने लज्जा-शून्य हो गये हैं। होना तो यह चाहिए कि हममें बड़प्पन की कोई बात हो तो भी, उसे छिपावें। बड़प्पन तभी बड़प्पन है, जब उसमें नम्रता हो। जिस बड़प्पन में अहंकार भरा हुआ हो, वह बड़प्पन नहीं कुछ और है । त्रिवेदी जी ने वेदों के दर्शन भी नहीं किये, लेकिन गलती से आप उन्हें त्रिवेदी न कहें, तो फिर देखिए आपकी क्या गति होती है। त्रिवेदी जी हाँथ-पाँव के मजबूत हैं, तो आपको शीघ्र ही अपनी गलती का मज़ा मिल जायेगा, नहीं तो उनका कोप कहीं नहीं गया है। कुलीनता के इस अहंकार को हमें अपने अन्दर से निकाल डालना होगा। तभी हम समभाव से एक दूसरे को देख सकेंगे। ऐसे अल्लों से हमारे भेदभाव को उत्तेजना मिलती है । त्रिवेदी- त्रिवेदी एक हो जाते हैं, चौबे-चौबे एक, कपूर - कपूर एक, कायस्थ- कायस्थ एक। इस भेद-भाव से ऊँच-नीच की श्रेणियाँ बनी हुई हैं। कोई पहले डंडे पर, कोई सबसे ऊपर, पर हैं सब उसी एक अंहकार - सूत्र से बँधे हुए । समाज संगठन ही इसी भेद रचना से हुआ है। हम नहीं समझते, अपने नाम के साथ कुलीनता की पदवियाँ न लगाने से समाज की क्या हानि होगी। हम ब्रह्मनाथ हैं। इससे क्या कि हम त्रिवेदी हैं या कपूर, या माथुर, या चन्देल । अगर किसी को घमंड हो कि हम चन्देल-वंश के हैं, हमारे बाप-दादे बड़े वीर थे, तो फिर दूसरों को यह घमंड क्यों न हो कि हम त्रिवेदी हैं और हमारे लकड़दादा ने वेद पढ़े थे। लकड़दादों का कमाया हुआ यश बहुत दिन भोग चुके, अब उसका त्याग करना पड़ेगा। जब हम अपने को मिश्र या कपूर, या टंडन या माथुर कहते हैं, तो मानों हम अपने को समाज से अलग कर लेते हैं। ये सारे अल्ल उस पृथक्ता का पालन करते हैं। अगर हम भूल जायँ कि हम पाँडे या तिवारी हैं, तो हम सम्भवतः दूसरों के सामने नम्र हो जायेंगे। तिवारी का कवच पहनकर तो मानों हम सम्पूर्ण समाज से लड़ने को तैयार हो जाते हैं । हमारे अभिवादन की प्रथा भी उसी भेद-भाव से जकड़ी हुई है। तिवारी जी की अभी जुम्मा- जुम्मा आठ दिन की पैदाइश है, दूध के दाँत भी नहीं टूटे, लेकिन