पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/६८

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जाति प्रथा पर विचार / 69 मंदिर प्रवेश ही इस समस्या को हल न करेगा हरिजनों की समस्या केवल मंदिर प्रवेश से हल होनेवाली नहीं है। उस समस्या की आर्थिक बाधाएं धार्मिक बाधाओं से कहीं कठोर हैं। आज शिक्षित हिन्दू समाज में ज्यादा से ज्यादा पांच फीसदी रोजाना मंदिर में पूजा करने जाते होंगे। पांच फीसदी न अगर पांच फी हजार कहा जाय तो उचित होगा। शिक्षित हरिजन भी मन्दिर प्रवेश को कोई महत्व नहीं देते। हरिजनों के अपने देवता अलग हैं। मन्दिर प्रवेश का अधिकार पाते ही वे अपने देवताओं को उठाकर दरिया में न फेंक देंगे। हिन्दू जाति उन्हें यह अधिकार देकर केवल अपना कलंक दूर करेगी, उसी तरह जैसे मृतक - श्राद्ध करके हम केवल अपनी आत्मा को शान्त करते हैं। मृत आत्मा को उससे लाभ होता है, इसके निश्चय करने का हमारे पास न कोई साधन है न इच्छा । असल समस्या तो आर्थिक है। यदि हम अपने हरिजन भाइयों को उठाना चाहते हैं तो हमें ऐसे साधन पैदा करने होंगे जो उन्हें उठने में मदद दें । विद्यालयों में उनके लिए वजीफे करने चाहिए, नौकरियां देने में उनके साथ थोड़ी-सी रियायत करनी चाहिए। हमारे ज़मींदारों के हाथ में उनकी दशा सुधारने के बड़े-बड़े उपादान हैं। उन्हें घर बनाने के लिए काफी जमीन देकर, उनसे बेगार लेना बन्द करके, उनसे सज्जनता और भलमनसी का बरताव करके वे हरिजनों की बहुत कुछ कठिनाइयां दूर कर सकते हैं। समय तो इस समस्या को आप ही हल करेगा, पर हिन्दू जाति अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकती । महान तप 26 नवम्बर 1932 क्या अब भी हम अपने बड़प्पन का, अपनी कुलीनता का ढिंढोरा पीटते फिरेंगे। यह ऊंच-नीच, छोटे-बड़े का भेद हिन्दू जीवन के रोम-रोम में व्याप्त हो गया है। हम यह किसी तरह नहीं भूल सकते, कि हम शर्मा हैं, या वर्मा, सिन्हा हैं या चौधरी, दुबे हैं या तिवारी, चौबे हैं या पाण्डे, दीक्षित हैं या उपाध्याय । हम आदमी पीछे हैं, चौबे या तिवारी पहले। और यह प्रथा कुछ इतनी भ्रष्ट हो गयी है, कि आज जो निरक्षर भट्टाचार्य है, वह भी अपने को चतुर्वेदी या त्रिवेदी लिखने में जरा भी संकोच नहीं करता। वह अपने पुरुषाओं की साधना के बल पर आज भी चतुर्वेदी बना हुआ है, पर जिसने वेदों का अध्ययन किया है, उसे यह अधिकार नहीं