पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/६६

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जाति-प्रथा पर विचार / 67 उचित प्रतीत होती है ? नहीं, कोई भी यह नहीं कह सकता। एक स्वार्थ ही इसका कारण है। पर याद रहे, यह इस समय का स्वार्थ, वर्ष दो वर्ष चाहे उनकी छाती को ठंडा भले ही कर दे, पर आगे वह उनकी पुरानी से पुरानी, दृढ़ से दृढ़ बुनियाद को भी उखाड़ फेंकेगा। वे स्वार्थ के जिस सुन्दर खिलौने से बच्चों की तरह खिलवाड़ कर रहे हैं, वह असल में डायनमाइट है, जो उनकी सात पुश्तों को ध्वस्त कर डालेगा। इसे दूर फेंक देना चाहिए, वर्ना फिर पश्चाताप का भी समय न मिलेगा। स्वार्थ त्याग को हिंदू-धर्म में एक यज्ञ कहा गया है। ऐसे समय में के उदारचेता, बुद्धिमान युवक समाज को अधीर नहीं हो जाना चाहिए, क्रोध में नहीं भर जाना चाहिए। ऐसे समय महात्माजी का सत्याग्रह- मंत्र ही एक उपाय है। क्रोध में तो हिंसा और उसका परिणाम सर्वदा हानिकर है । ऐसे समय देश के प्रत्येक समझदार व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह पहले अपने आप के हृदय से ऊँच-नीच और छुआछूत के भावों को विनष्ट कर दे । । 29 सितम्बर 1932 क्या अछूतों को मंदिरों में जाने देना पाप है ? क्या मंदिरों के पुजारियों और मठों के महंतों से हिन्दू जाति बनी हुई है ? पूजा करनेवाले भी.रहेंगे, या पूजा करानेवाले ही मंदिरों को स्थायी रखेंगे ? एक जातियाँ हैं, जो दूसरों को अपने में मिलाकर फूली नहीं समातीं । आज एक चमार मुसलमान हो जाए, सारा मुस्लिम समाज उसका स्वागत करेगा, लेकिन यह मेमोरियलबाज़ लोग, जो हिंदू जाति का रक्षक होने का दावा करते हैं, यह भी नहीं सह सकते कि कोई बाहर का आदमी उनके देवताओं के दर्शन कर सके । अछूत के पैसे तो आप बेधड़क ले लेते हैं, अछूत कोई मंदिर बनावे, आप दल-बल के साथ जायेंगे, मंदिर में देवता की स्थापना करेंगे, तर माल खायेंगे- हाँ, अछूत ने उसे छुआ न हो- दक्षिणा लेंगे, इसमें कोई पाप नहीं, न होना चाहिए, लेकिन अछूत मंदिर में नहीं जा सकता, इससे देवता अपवित्र हो जायेंगे। अगर आपके देवता ऐसे निर्बल हैं कि दूसरों के स्पर्श से ही अपवित्र हो जाते हैं, तो उन्हें देवता कहना ही मिथ्या है। देवता वह है, जिसके सम्मुख जाते ही चांडाल भी पवित्र हो जाय । हिन्दू उसी को अपना देवता समझ सकता है। पतितों का उद्धार करनेवाले ठाकुर ही हमारे ठाकुर हैं, जो पतितों के दर्शन मात्र से पतित हो जायँ, ऐसे ठाकुर को हमारा दूर ही से नमस्कार है।