पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/६५

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प्रेमचंद प्रेमचंद ने भारत की अछूत समस्या का ज़िक्र 'विविध' प्रसंग में किया है जिसमें उन्होंने भारतीयता पर जोर देते हुए देश के नागरिकों का आह्वान किया है कि वे विशेष अधिकारों के लिए न लड़कर समान अधिकारों के लिए लड़ें । वह समय राष्ट्रीय आंदोलन का था, प्रेमचंद उसी आंदोलन को मज़बूत करने के लिए शूद्रों को हिंदुओं से अलग कौम बनाने के पक्ष में नहीं थे। प्रेमचंद पीड़ितों के पक्षधर थे परन्तु वे गांधीवाद से बहुत प्रभावित थे। गांधी जी के दृष्टिकोण की सब सीमाएं हमें प्रेमचंद में भी दिखाई देती हैं। परन्तु इसका यह अर्थ कतई नहीं कि उनकी किताबों को जलाया जाए। बल्कि आज ज़रूरत इस बात की है कि प्रेमचंद का पुर्नपाठ हो । प्रेमचंद का विपुल साहित्य मजदूरों और किसानों के पक्ष में खड़ा है और मेरा यह मानना है कि आज की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों से रू-ब-रू होने में वह हमें मदद पहुंचाता है- अजेय कुमार जाति -प्रथा पर विचार हमारा कर्तव्य यह युग, प्रकाश का युग है। इसमें अब अंधकार नहीं रह सकता । वह दिन अब नहीं रहे, जब धर्म के नाम पर लोग काशीकरवत लिया करते थे। अब विश होकर युग-धर्म के अनुसार ही चलना पड़ेगा। अछूत इसीलिए तो अछूत हैं कि वे जन-समाज के स्वास्थ्य के लिए उनके घरों की सफाई करते हैं, उनकी सेवा करते हैं। उनमें और अछूतों में क्या अंतर है? जैसे वे मनुष्य हैं, अछूत भी हैं। यदि अछूत उनके घर का मल-मूत्र साफ़ करते हैं, तो वे भी तो इस कार्य से वंचित नहीं हैं। वे भी तो रोज सुबह सबसे पहले यही काम करते हैं । बाल-बच्चों के घर प्राय: सभी वर्ग की स्त्रियों को यह कर्म करना पड़ता है। रोग-काल में भी मल-मूत्र उठाने का काम प्राय: घर के ही लोग करते हैं। उस समय कोई मेहतर घर में से मैला उठाने नहीं आता। फिर क्यों इस दुर्विचार का पोषण किया जाता है, क्यों अपने ही हाथों अपने पैरों को काटने की कोशिश की जाती है ? क्या कोई भी वर्णाश्रम अपने हृदय पर हाथ रखकर कह सकता है कि वास्तव में यह छुआछूत उन्हें धर्म की दृष्टि से