पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/६२

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तुम्हारी जात-पांत की क्षय / 63 छोटे शहरों में ही चार-चार, छै छै दर्जन होटल नहीं हैं, बल्कि छोटे-छोटे स्टेशनों पर खुल गये हैं। कुछ साल पहले तक किसको पता था कि छपरा स्टेशन के प्लेटफार्म पर हिन्दू खोमचा वाला गोश्त पराठे बेचता फिरेगा। मेरे एक दोस्त एक दिन पटने में किसी होटल में भोजन करने गये। उनकी क्यारी की बगल में एक लड़का बैठा था और उसकी बगल में एक तिरहुतिये ब्राह्मण चन्दन - टीका लगाकर बैठे थे | क्यारी छोटी थी और लड़के का हाथ ब्राह्मण देवता के शरीर से छू गया। वह उस पर आग बबूला हो गये, डाँटकर जात पूछने लगे। हमारे साथी ने लड़के को चुपके से समझा दिया- कह दो रैदास भगत (चमार) । लड़के ने जब ऐसा कहा तो ब्राह्मण का कौर मुँह का मुँह में ही रह गया । वह अभी बोलने को कुछ सोच ही रहे थे कि आसपास के लोग उन पर बिगड़ उठे – यह होटल है, यहाँ दाल-भात की बिक्री होती है। तुमने जात-पाँत क्यों पूछी ? ब्राह्मण देवता को लेने के देने पड़ गये। यदि खाना छोड़कर जाते हैं, तो यही नहीं कि पैसे दण्ड पड़ेंगे, बल्कि सब लोगों को खुल कर हँसी उड़ाने का मौका मिलेगा। इसलिए बेचारे ने सिर नीचा करके चुपचाप भोजन कर लिया । रोटी की छूत का सवाल हल-सा हो चुका है। शिक्षित तरुण इसमें हिन्दू- मुसलमान का भेद-भाव नहीं रखना चाहते। लेकिन बेटी का सवाल अब भी मुश्किल मालूम पड़ता है। एक दिन रेल में सफर करते मुझे एक मुसलमान नेता मिले। वह समाजवादियों के नाम से हद से ज्यादा घबराये हुए थे। बोले “समाजवादी, खैर, लोगों की गरीबी दूर करना चाहते हैं, इस्लाम भी मसावात् (समानता) क प्रचारक है, लेकिन वे मजहब के खिलाफ क्यों हैं ?" मैं – “साम्यवादी मजहब के खिलाफ अपनी शक्ति का तिल भर भी खर्च करना नहीं चाहते। वे तो चाहते हैं कि दुनिया में सामाजिक अन्याय और गरीबी न रहने पाये।" मौलाना – “इसमें हम भी आपके साथ हैं।" मैं—‘‘आप भी साथ हैं? क्या आप सारे हिन्दुस्तानियों की रोटी-बेटी एक कराने के लिए तैयार हैं ?' मौलना – “इसकी क्या जरूरत है ? " मैं – “ क्योंकि गरीब तब तक आजादी हासिल नहीं कर सकते, जब तक अपनी कमाई स्वयं खाने का हम हक पा नहीं सकते, जब तक कि वे एक होकर अपने चूसने वालों के - चाहे वे देशी हों या विदेशी - का मुकाबला करके उन्हें परास्त नहीं करते।"