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तो बेटी का संबंध दण्डनीय अपराध है और हिन्दुओं के पूज्य व आस्था के ग्रंथों में इसका विधान है और राजा को इस व्यवस्था का पालन करने के लिए कहा गया है। जातियों में ऊंच-नीच मौजूद है। जातियां समानता के सिद्धांत को नहीं, असमानता को पोषित व आधार देती हैं। भारत में बाहर से कई क्षेत्रों के लोग आए और उन्होंने यहां शासन किया लेकिन यहां की सामाजिक व्यवस्था को नहीं छुआ। इससे छेड़छाड़ नहीं की। शासकों के लिए जाति में बंटा समाज हमेशा मददगार रहा है।

आज भी जाति प्रथा मौजूद है। यद्यपि यह उस रूप में नहीं है। आधुनिक जीवन की अनिवार्यताओं, शिक्षा आदि के कारण इसके स्वरूप में बदलाव आया है। खासतौर पर रोटी से संबंध बदले हैं। लेकिन इसका रूप अभी भी मौजूद है।

सभी लोग मानते हैं कि जाति -प्रथा ने भारतीय समाज का बहुत अधिक नुकसान किया है। इस बात को पहचानकर इसके उन्मूलन के लिए आंदोलन भी चले थे। उन लोगों ने इसमें विशेषकर भाग लिया था जो इसका शिकार थे । जातिबा फुले और अंबेडकर ने जाति के अस्तित्व को मिटाने के लिए ही बीड़ा उठाया था लेकिन इस देश का दुर्भाग्य ही है कि जाति-प्रथा को जड़ से उखाड़ने की ताकत रखने वाले आंदोलन स्वयं जाति प्रथा के कवच बन गए हैं और शासक वर्गों के तौर-तरीके अपनाकर 'जैसा है वैसा ही रहे' के सिद्धात में इसकी परिपाटी हो गए है ।

जोतिबा फुले, अंबेडकर, भगतसिंह, राहुल सांकृत्यायन, मुंशी प्रेमचंद, बी. टी. रणदिवे, शैलेन्द्र शैली के विचारों को यहां दिया जा रहा है। इन्होंने जाति प्रथा हर पहलू पर विचार कर इसे समाप्त करने के लिए प्रयास किए हैं। आज के समाज में जाति प्रथा को मिटाने के लिए राजनीतिक व समाजिक आंदोलन की जरूरत है। इसके लिए सबसे पहले जाति प्रथा की संरचना व स्वरूप को समझना आवश्यक है। इन विचारकों के विचार इसमें हमारी बहुत मदद करते हैं।

आशा है कि यह पुस्तक इस बुराई को जड़ से खत्म करने में कुछ न कुछ योगदान अवश्य करेगी।

उद्भावना, जो हमेशा जाति और सांप्रदायिकता के मुद्दों पर पुस्तकें / पुस्तिकाएं प्रकाशित करती रही है, ने इस पुस्तक को अपनी सीरीज़ का हिस्सा बनाया, उसके लिए हम श्री अजय कुमार के आभारी हैं।

30 मई, 2005 सुभाष चन्द्र
एम. एन. काॅलेज, शाहबाद(मा.)