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भूमिका

 

ब्राह्मणवाद की विचारधारा मूलतः दो स्तम्भों पर टिकी है—एक वर्णव्यवस्था और दूसरी पितृसत्ता। वर्ण-व्यवस्था ने समाज की आधी आबादी को इंसान मानने से ही परहेज किया तो पितृसत्ता ने औरतों के स्वतंत्र अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाया है। वर्णव्यवस्था और पितृसत्ता की विचारधारा के विरुद्ध आंदोलन भी होते रहे हैं, लेकिन इनका अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ। आज की राजनीति ने अपने हितों के लिए जाति प्रथा को जिंदा रखा है। अब जाति एक राजनीतिक ईकाई बन गई है।

भारत की राजनीतिक पार्टियां जाति प्रथा को तोड़ना नहीं चाहती यद्यपि अपने घोषणा पत्रों, दस्तावेजों और भाषणों में सभी पार्टियां जाति को और जातिवाद को समाज के लिए अभिशाप जैसी चीज मानते हैं, लेकिन इस बुराई व अमानवीय प्रथा को मिटाने के लिए कुछ नहीं करते बल्कि उसको पोषित ही करते हैं। पार्टियों के नेता स्वयं को 36 'बिरादरियों' का हित चिन्तक घोषित करते हैं जैसे कि 'बिरादरी' यानि जाति से बाहर समाज की कल्पना ही न की जा सकती हो।

एक और बात देखने में आती है कि पार्टियों के नेता, विशेषकर हिंदी क्षेत्र में, अपनी जातियों के नेता भी हैं। आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति 'जाट सभा' का अध्यक्ष भी है और किसी राजनीतिक पार्टी का भी अध्यक्ष है। एक व्यक्ति अन्य जाति का प्रधान भी है और दूसरी पार्टी का प्रधान भी। जबकि राजनीति में ऐसे लोगों को जगह नहीं दी जानी चाहिए। जाति के आधार पर समाज में नफरत फैलाने व जातिवाद को बढ़ावा देने वाले लोगों को होना तो चाहिए जेल में लेकिन वे मौज ले रहे हैं राजनीतिक सत्ता का।

चुनावों के दौरान उम्मीदवारों का निर्णय करने में इस बात का महत्व अधिक है। जिस हलके का चुनाव है उसमें जाति के आधार पर मतदाताओं की संख्या इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। विधानसभा व लोकसभा हलकों की पहचान भी जाति के रूप में हो गई है कि अमुक हलका ब्राह्मण हलका है, अमुक हल्का सैनी हलका है तो अमुक जाट या यादव। जाति के आधार पर मतदाताओं की गणना राजनीति को कैसा स्वरूप प्रदान करती है? चुनावों से पूर्व किए गए सर्वेक्षणों में भी