पृष्ठ:जाति क्यों नहीं जाती.pdf/३५

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36 / जाति क्यों नहीं जाती ? मिलता। उन्हें अपने लिए किसी समान नाम की जरूरत महसूस नहीं हुई थी, क्योंकि उन्हें ऐसा नहीं लगता था कि वे किसी विशेष समुदाय के हैं। वस्तुतः हिन्दू समाज कोई वस्तु है ही नहीं। यह अनेक जातियों का समवेत रूप है। प्रत्येक जाति अपने अस्तित्व से परिचित है। वह अपने सभी समुदायों में व्याप्त है और सबको स्वयं में समाविष्ट किए हुए है और इसी में उसका अस्तित्व है। जातियों का कोई मिला-जुला संघ भी नहीं है। किसी भी जाति को यह महसूस नहीं होता कि वह अन्य जातियों से जुड़ी हुई है - सिर्फ उस समय को छोड़कर, जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते हैं। अन्य सभी अवसरों पर तो प्रत्येक जाति यह कोशिश करती है कि वह अपनी अलग सत्ता को ठीक से बनाए रखे और दूसरों से स्पष्ट रूप से अलग रहे । प्रत्येक जाति अपनों में ही खान-पान और शादी ब्याह का सम्बन्ध रखती है, यहां तक कि हर जाति अपना एक अलग पहनावा तक निश्चित करती है। इस बात से अलग दूसरा कारण क्या हो सकता है कि भारत के नर-नारी असंख्य किस्मों के परिधान पहनते हैं, जो कि पर्यटकों के लिए हैरानी का कारण है। दरअसल, हर आदर्श हिन्दू उस चूहे की तरह है जो अपने ही बिल में घुसा रहता है और दूसरों के सम्पर्क में नहीं आना चाहता । हिन्दुओं में उस चेतना का सर्वथा अभाव है, जिसे समाजविज्ञानी 'समग्र वर्ग की चेतना' कहते हैं। उनकी चेतना समग्र वर्ग से सम्बन्धित नहीं है । हरेक हिन्दू में जो चेतना पाई जाती है, वह उसकी अपनी ही जाति के बारे में होती है। किसी कारण यह कहा जाता है कि हिन्दू लोग अपना समाज या राष्ट्र नहीं बना सकते । लेकिन अनेक भारतीयों की देशभक्ति की भावना उन्हें यह मानने की अनुमति नहीं देती कि वे एक राष्ट्र नहीं है अथवा वह विभिन्न समुदायों का मात्र एक अव्यवस्थित समूह है । वे इस पर आग्रह करते हैं कि ऊपर से अलग-अलग दिखने वाली हमारी जनता में एक मूलभूत एकता है, जो हिन्दुओं के जीवन की विशेषता है, क्योंकि उनकी आदतों, प्रथाओं, विश्वासों और विचारों में एकरूपता है, जो भारत में सर्वत्र दृष्टिगत होती है। इसमें संदेह नहीं कि उनके स्वभाव, रीति रिवाजों, धारणाओं और विचारों में समानता है, लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना स्वीकार्य नहीं होगा कि हिन्दू जनता को हिन्दू समाज की स्थिति प्राप्त है, ऐसा मान लेने का अर्थ है - समाज-रचना के अपरिहार्य तत्वों को सही रूप में न समझना । केवल भौतिक दृष्टि से पास-पास रहने के कारण लोगों को उस व्यक्ति से अधिक समाज की संज्ञा नहीं दी जा सकती जो अपने समाज से मीलों दूर रहने पर अपने समाज का सदस्य नहीं रहता। दूसरी बात यह है कि केवल आदतों, रीति-- रिवाजों, धारणाओं और विचारों की समानता होने से ही व्यक्तियों को 'समाज' नहीं